कविता
रूठा-रूठा वसन्त है
थकी हुई हवाओं ने
मेरी आँखों के रस्ते
दस्तक दी है
मेरे भीतर,
दुविधा में हूँ
दरवाज़ा
खोलूँ या न खोलूँ?
मेरी खिड़की के ठीक सामने
खड़ा
पीपल का पेड़ उदास है
पतझरी मौसम ने
उसकी शाखों से
कुछ पत्ते चुरा लिए हैं
उदण्ड हवाएं
दीप को बुझा देती हैं
और बूढ़ी फ़िज़ा की
हथेलियों से छिटक कर
कुछ आड़ी-तिरछी रेखाएं
मेरे चेहरे पर ठहर गई हैं
मेरे बेडरूम की दीवार पर
सदियों से लगा आईना
ख़ौफ़जदा है
अपने तन पर उभर आए
बदरंग धब्बों से
किसने कहा था?
हर बरस की तरह
इस बार भी आएगा- वसन्त
पर कहाँ है- वसन्त?
बेसब्र इन्तज़ार में
हर गली की ख़ाक छानती
मेरी आँखें
माँ के जंग लगे
पुराने बक्से के भीतर
वसन्त को ढूँढ रही हैं
मेरे बचपन की वह फ्राक
जिसमे टँकी हैं
अनगिनत झालरें
किसी राजा की छत पर लगे पंखे की तरह
ताज़ी हवा का अहसास देते
अपनी समझ से उसे
मेरी अनपढ़ी माँ ने खूब पक्के रंग में रंगा था
अब....एकदम बदरंग हो
मुँह चिढ़ा रहा है
और माँ की पीली साड़ी
जहाँ-तहाँ से मसक गई है
देश की फ़िज़ा की तरह
हर बरस वसन्त के दिन
अपनी यादों के फूल खिलाने के लिए
माँ की सन्दूक खोलती हूँ
पर फिर भी
पता नहीं कैसे
उसमें एक अजीब सी सड़ांध भरी है
राजनीतिक कुव्यवस्था की तरह
सड़ी हुई टीन के किनारे छेद करके
एक मरियल-सा चूहा भीतर घुस गया
पर,
बाहर नहीं आ पाया
सन्दूक पर उग आए काले धब्बों ने
मुझे फिर याद दिला दी
उस अभागे हवाई जहाज की
जो टकराए थे गगनचुम्बी इमारत से
और फिर पूरी दुनिया
तब्दील हो गई थी
एक अनोखे क़ब्रिस्तान में
बचपन में सुनी थी
माँ से ढेरों कहानियाँ
बदलती ऋतुओं की शरारतें
और उन सबसे अलग
ऋतुराज के आने की आहट
घर में बनते पकवानों की महक
पूरे मोहल्ले की अनोखी चहक
पीले-फूले सरसों का रंग
खेतों पर उतर कर
हमारे भीतर भी भर जाता
हर बरस उसमें से
चुटकी भर रंग चुरा कर
माँ की तरह मैं भी
पूरे घर को सराबोर कर देना चाहती हूँ
और-
अपने बच्चों के कपड़ों को भी
मैं उनकी आँखों में
देखना चाहती हूँ
अपने बचपन की चमक को
पर,
मेरे बच्चों की आँखों में
कोई भी जगह खाली नहीं
उसमें तो भरी है
बमों के धमाकों की दहशत...
कब कोई धमाका
घर का कोना खाली कर दे
वसन्त आए भी तो कैसे?
चिमनियों से निकलते काले धुएं ने
पूरी दुनिया को घेर रखा है
वसन्त दुविधा में है
राजनीतिक उठापटक...
आतंकवाद....
पूरे आकाश को घेरता काला धुआं
एक अनजाने भय से दरकती धरती
और इन सबसे अलग
अपने को बचाने की फ़िक्र में
दूसरे को तबाह करता - आदमी
ऋतुएं आज भी बदल रही हैं
पर वसन्त?
उसके आने की तो अब आहट भी नहीं
लगता है
आदमी की बदलती फ़ितरत से
रूठ गया है हमसे
हमारा वसन्त.....
(चित्र-गूगल के सौजन्य से )