Sunday, February 12, 2017

यह इक्कीसवीं सदी है दोस्तों...



‘कन्या-भ्रूण की हत्या करना पाप है, साथ ही कानूनन जुर्म भी...,’ ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ,’ ‘बेटियाँ घर की लक्ष्मी होती हैं...,’ इस तरह के कई नारे कभी अख़बार के पन्नों पर, तो कभी न्यूज़ चैनलों पर देखे-पढ़े जाते हैं, पर इन सबके बीच कुछ घटनाएँ ऐसी होती हैं जो इन नारों को एकदम निरर्थक साबित कर देती हैं।

अभी ज़्यादा दिन नहीं हुए जब एक ख़बर ने जितना मन को आहत किया, उससे ज़्यादा आक्रोश से भर दिया...। ख़बर थी, एक युवती को दो बेटियाँ पैदा करने के कारण ससुराल वालों ने घर से निकाल दिया। ऐसे विकट समय जाने किस कारण युवती ने मायके न जाकर एक मन्दिर में शरण ली और फिर दोनो बच्चियों को बेसहारा छोड़ कर मर गई...। यह कदम उसने भले ही आवेश में उठाया हो, पर उस क्षण उसकी ममता किस कोने दुबक गई थी कि उसने एक पल के लिए भी नहीं सोचा कि उसके बिना उसकी मासूम बच्चियों का क्या होगा...?

स्त्री को शक्तिरूपा का नाम भी दिया गया है, पर इस तरह की कमज़ोर स्त्रियाँ इस नाम को निरर्थक बना देती हैं...। क्यों एक स्त्री मन और तन से इतनी कमज़ोर हो जाती हैं कि पति का सहारा छिन जाने पर इतनी अवश हो जाए कि उसे आगे का कोई रास्ता ही न सूझे...? अवशता के इन पलों में वह सिर्फ़ अपने लिए ही क्यों सोचती है...? ऐसी स्त्रियाँ जो खुद अपना सहारा न बन पाएँ, वे अपनी बेटियों को क्या बचाएँगी...? एक पुरुष जब अपनी मेहनत से पैसा कमा कर परिवार चला सकता है तो क्या एक स्त्री ऐसा नहीं कर सकती...?  

यह कोई पहली घटना नहीं है...। अपने देश में ही नहीं, बल्कि दुनिया के कई देशों की आधी आबादी घरेलू व सामाजिक हिंसा से हार मान कर अपने उन कमज़ोर क्षणों में बस एक ही रास्ता चुनती है...और वह रास्ता है मौत का...। इस रास्ते को चुन कर वह तो सारी दुनियावी यंत्रणाओं से मुक्त हो जाती है, पर पीछे छोड़ जाती है कई सवाल...।

पहला और सबसे अहम सवाल तो यही है कि क्या उनके ऐसे कदम से यह पुरुष-प्रधान समाज बदल गया है...या फिर जिसकी वजह से यह रास्ता चुना है, वो पुरुष ही बदला है...? शायद नहीं...। अगर पुरुष नहीं बदलता तो न बदले...पर स्त्रियाँ तो अपने आपको बदल लें । सदियों पुरानी बात हो या आज का समय हो, अपनी बुद्धि, साहस और चतुराई से कई स्त्रियों ने पुरानी सड़ी-गली मान्यताओं व परम्पराओं को चुनौती देकर अपने स्त्रीत्व को ही सार्थक नहीं बनाया, बल्कि समय को भी पलट कर रख दिया।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अत्याचार करने वाला अपराधी होता है, तो अत्याचार सहने वाला उससे भी बड़ा अपराधी है...। बरसों-बरस अत्याचार सहना ही क्यों...? बरसों बाद विरोध करने के लिए मुँह खोला तो फ़ायदा ही क्या...? जुल्म के शुरुआती दौर में ही अगर स्त्री तन कर खड़ी हो जाए तो जुल्म की इन्तिहा हो ही नहीं...। हम समाज से डर कर कब तक जीते रहेंगे...? हम अपनी आधी दुनिया की उन औरतों से प्रेरणा क्यों नहीं ले सकते जो घर, परिवार, समाज द्वारा खड़े किए गए संघर्षों और चुनौतियों से जूझते हुए...पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाते हुए अपनी मंजिल तक पहुँचती हैं...। यही नहीं बल्कि घरेलू हिंसा का डट कर मुकाबला करने वाली, मन से मजबूत बहुत सारी घरेलू औरतें भी हमको अपने आसपास दिख जाएँगी...।

आज हमें यह कहते हुए अक्सर बड़ा गर्व होता है कि हम इक्कीसवीं सदी में हैं। यह इक्कीसवीं सदी का वो भारत है, जहाँ स्त्रियों को कानूनी व सामाजिक रूप से अपनी ज़िन्दगी को अपने तरीके से जीने का अधिकार दिया गया है, पर यह अधिकार तभी सार्थक है जब एक औरत पूरी निडरता और बुद्धि के साथ इसका उपयोग करे...।

सदी दर सदी बदलती जाएगी, हम तकनीकी तरक्की के चरम पर होंगे, पर समाज का मानसिक स्तर शायद यही रहेगा। स्त्रियाँ जब तक साहस के साथ इन सब का मुक़ाबला नहीं करेंगी, तब तक उन्हें इसी तरह ठोकर लगती रहेगी। जब कई सारी महिलाएँ खुद को बदल करे आकाश की बुलन्दियों तक पहुँच गई हैं तब हम क्यों नहीं...?

इक्कीसवीं सदी की यह बुलन्दी हमारा भी इन्तज़ार कर रही है...।

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