Saturday, March 29, 2014

खुला हुआ आकाश और...


     
                                        
                                                                                        

           पूरा हफ़्ता रीतने को आ रहा है...लगता है जैसे आकाश सदियों से भरा बैठा था और अब मौका मिलते ही अपना सारा गुबार निकाल देना चाहता है...। काले, सफ़ेद और कुछ-कुछ मटमैले बादलों के ढेर सारे टुकड़े निकम्मे आवारा लड़कों की तरह इधर-उधर बेख़ौफ़ डोल रहे हैं...। प्रगतिशीलता का मुखौटा लगाए वैश्वीकरण की इस तकनीकी तरक्की के युग में उनका आतंक जंगल के किसी छुट्टे जानवर से कम नहीं।
           इनकी वारदातों के बारे में किसी को भी कुछ अनुमान नहीं...। कभी किसी पहाड़ी फ़िज़ा में इनका टुकड़ा अचानक बम के धमाके की तरह आवाज़ करता हुआ फटता है, तो पूरी फ़िज़ा दहल जाती है और कभी इनकी धार इतनी तेज़ कि मुम्बई जैसा विशाल शहर बहता नज़र आता है।
           छोटे शहरों और गाँवों की तो औक़ात ही क्या? जब मन हुआ तो बरसे और जब इच्छा नहीं हुई तो आकाशीय शून्य में ऐसे घुल-मिल गए कि खुद उसका हिस्सा बन गए...। उस शून्य में तपते आदमियों की आँखें टँगी ही रह जाती हैं।
          "अरे यार, यह सब हमारा ही तो किया-धरा है...इसमें प्रकृति का क्या दोष...?"
           कल वह खुद ही तो अख़बार पढ़ते-पढ़ते बड़बड़ाया था," हम सब की हरामज़दगी की वजह से यह सब होता है...। कहीं सारे पेड़ काट कर जंगल के जंगल को मैदान बना दिया है, तो कहीं साफ़-सुथरे मैदान में घर का कूड़ा फेंक कर जंगल में तब्दील कर दिया है...। लो अब मरो...। एक तो भीषण बदबू, तिस पर कूड़े के ढेर पर मुँह मारते सुअर, कुत्ते, छुट्टे सांड़...और आदमी? खुद साला जंगली जानवर से कम है क्या? मौका पाते ही इसी ढेर पर बैठ कर अपने बच्चों को हगने-मूतने छोड़ देता है...। कोई भी रास्ता अछूता नहीं...जिधर से निकलो, बस यही नज़ारा...।"
          बरसात के मौसम में तो और भी मुसीबत...। एक तो टूटी-फूटी सड़कों पर घुटने-घुटने तक पानी, और जहाँ पानी जमा नहीं, वहाँ ढाल पर बहता है...साथ में बहती टट्टी...छिः-छिः...।
          उसका मन घिना गया। लगा, जैसे पूरी तरह टट्टी में सन गया है...। उधर से जबरन ध्यान हटा कर आँखें अख़बार में गड़ा दी। बड़ा पुराना और घिसा-पिटा सा डॉयलाग था,"इस बार मानसून जल्दी और पूरे जोर-शोर से आएगा...।" मौसम विभाग की रपट पूरे विश्वास के साथ थी- दस जून के आसपास मानसून का आगमन हो जाएगा...पूरे प्रदेश में अच्छी और भरपूर बारिश के आसार...। आगामी दिनो के ख़तरों को भाँपते हुए बाढ़ से निपटने की पूरी तैयारी...सरकार की ओर से पुख़्ता इंतज़ाम किए जाने का आश्वासन...। पहले के बरसों में जो चूक हुई थी, वैसा अब कुछ भी नहीं होगा...कोई गाँव नहीं बहेगा...जान-माल की सुरक्षा के पूरे इंतज़ाम...।
          मौसम विभाग की घोषणा वाकई इस बार फुस्स नहीं थी। पानी बरसा और खूब जोर से बरसा...। ऐसा लगा कि इस बार तो प्रलय निश्चित है...। सड़क पर घुटनों-घुटनों तक पानी...। टूटी सड़क के गढ्ढों का अन्दाज़ा न होने से कोई औंधे मुँह गिरता, तो कभी कोई किसी लड़खड़ाते वाहन से बचने के लिए इधर से उधर होता...अंत में दोनो औंधे मुँह...। सड़क के दोनो तरफ़ बने मकानो के लिए यह नज़ारा बड़ा दिलचस्प होता...। चाय की चुस्कियों के बीच बड़े-बूढ़े मन्द-मन्द मुस्कराते, तो बच्चे पढ़ाई छोड़ कर खूब ताली बजाते...। इस सारे क्रिया-कलापों के बीच गिरे हुए आदमी को लगता कि उससे ज़्यादा गिरा हुआ शायद कोई नहीं है...।
         उसका मन एकदम से तिक्त हो उठा। उसने अख़बार एक तरह से मेज पर पटक ही दिया था। रोज़ बस एक सी ही ख़बरें...। बस थोड़ा सा हेर-फेर...हर अख़बार एक-सा...। लगता जैसे डेस्क पर ही पत्रकारिता की सारी ज़िम्मेदारियाँ पूरी कर ली जाती हैं। कहीं हत्या, तो कहीं आत्महत्या...कहीं आदमज़ात की गुण्डागर्दी तो कहीं मौसम की...। सरकार से कोई पूछे कि उसके तोंदुल नेता जनता को सुरक्षा देने के नाम पर क्या कर रहे हैं?
        इस नाम की कोई चिड़िया क्या रह गई है दुनिया में, जिसकी चहकन के बीच आदमी पल-दो-पल सकून भरी ज़िन्दगी जी सके? जहाँ देखो, वहीं आतंक...भय का माहौल...। कभी अमेरिका-इराक़ का युद्ध तो कहीं लादेन का ख़ौफ़...। ट्रेड सेंटर में हुआ भीषण धमाका और उसके बीच उठती चीत्कारों को तो कभी भुलाया नहीं जा सकता। अंतर्राष्ट्रीय स्तर की ऐसी ही न जाने कितनी ख़बरें तो डराती ही हैं, पर अपने इस शहर में ही कहाँ सकून है...।
        एक वक़्त था जब-" जहाँ डाल-डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा...वो भारत देश है मेरा..." सुन कर गर्व से सिर ऊँचा हो जाता था, वहीं अब अख़बार की बेशर्म ख़बरों व टी.वी स्क्रीन पर देखी गई पिक्चरों को देख कर सिर शर्म से झुक जाता है...। पूरी दुनिया में पैसों के आगे किसी की क़ीमत रह गई है क्या? जहाँ द्रेखो, पैसा...पैसा और बस्स पैसा...ज़िन्दगी का सुख कहीं नहीं...।
        झुंझला कर वह उठ खड़ा हुआ। अगर उसे भी गृहस्थी चलाने के लिए ढेर सारे पैसों की ज़रूरत न होती, तो वह कभी भी ऐसे बदमिजाज़ मौसम में ऑफ़िस न आता। रोज पुराने स्कूटर से पन्द्रह किलोमीटर जाना और शाम को उतना ही सफ़र तय करके आना कोई आसान काम नहीं है। फिर कानपुर जैसे गन्दगी भरे शहर में...? यहाँ की सड़कें तो जैसे आँख मूँद कर बनाई गई हैं...सीमेण्ट कम, मिट्टी ज्यादा...। इधर बनी, उधर टूटी...। बड़े-बड़े गड्ढे...सड़क के किनारे खड़ा मौरंग और बालू का विशाल पहाड़...आसपास बिखरी मनो गिट्टियाँ...। आवारा घूमते जानवर, तिस पर शहर में टैम्पुओं की अराजकता...। सवारी की लालच में कब-कहाँ मुड़ जाएँ, कहाँ रुक जाएँ और  इस जल्दी-जल्दी सवारी भरने-उतारने के चक्कर में कहाँ पलट जाएँ, कोई ठिकाना नहीं। उससे टकरा कर आदमी चाहे मरे, चाहे जिए...यह उसकी समस्या है। अगर ऐसा न होता तो कोई तो उनकी लगाम कसता...।
       वह बेवजह झुंझलाया। कौन किस पर लगाम कसता है...उसे क्या? पर यह लगातार होती तेज़ बारिश...?
       रात भर पानी बरसने के कारण सड़क पर पानी ही पानी था। गड्ढों में पानी भरा होने के कारण कल उसे समझ ही नहीं आया था और वह बुरी तरह लड़खड़ा गया था, तिस पर सामने से आता तेज़ रफ़्तार ट्रक...। बचने के लिए किनारे हुआ तो पलट गया। गिरने से पैर व कमर में चोट तो आई ही, मौत के भय से आँखों के आगे तारे नाच गए।
        पूरा कपड़ा मिट्टी से सन गया था। उठना चाहा तो लगा जैसे शरीर में जान ही नहीं है। लोगों ने दौड़ कर, सहारा देकर उठाया, स्कूटर भी सीधा कर दिया। पाँच मिनट बाद उसे थोड़ी राहत सी महसूस हुई। पर साथ ही एक सिहरन भी...अगर ट्रक की चपेट में आ जाता तो...?
        स्कूटर से घर जाने की हिम्मत नहीं हुई तो जाते हुए रिक्शे को हाथ देकर रोका और उस पर खुद को और स्कूटर को लाद कर घर पहुँचा।
        वैसे तो वह अक्सर ही देर से घर पहुँचता था, पर उस दिन कुछ तो बारिश, और कुछ गिरने की वजह से काफ़ी देर हो गई थी। वह जानता था कि ज़्यादा देर होने पर उसकी पत्नी नीरा परेशान होगी और इस हाल में देख कर तो और भी...और हुआ भी ऐसा ही।
         वह जैसे ही घर के दरवाज़े पर रुका, नीरा तुरन्त ही दौड़ी आई," अरे, यह क्या हो गया? एक्सीडेण्ट हो गया क्या? आपको ज़्यादा चोट तो नहीं आई...?"
         नीरा का इस तरह घर के बाहर आ जाना उसे बड़ा नाग़वार गुज़रा। रिक्शेवाले को पैसे देकर और घर के भीतर स्कूटर करते वक़्त तो वह कुछ नहीं बोला पर भीतर जैसे ही घबराई हुई नीरा करीब आई, उसने झिड़क दिया," एक मिनट साँस तो लेने दो...न चाय न पानी...बस सवालों की झड़ी...। मुझे क्या हुआ, इससे तुम्हे कोई मतलब नहीं, समझीऽऽऽ...जाकर अपना काम करो...।"
          नीरा पल भर डबडबाई आँखों से उसे ताकती रही, पर दुबारा जैसे ही दो जलती हुई आँखें उसकी ओर उठी, वह घबरा कर रसोई की ओर चली गई...और वह...?
           उसके आने से पहले ही नीरा ने रोज की तरह धुला हुआ कुर्ता-पायजामा, तौलिया, बनियाइन सब रख दिया था। ये सब लेकर वह गुसलखाने में घुस गया और डेटॉल साबुन से खूब मल-मल कर नहाने लगा, पर इस दौरान भी उसका मन कड़ुवाहट से भरा रहा...। कुछ तो चोट लगने की वजह से और कुछ...। उसे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर उसके अचेतन में ऐसा क्या है जो उसके सचेतन मन को भी नीरा के प्रति एक अव्यक्त नफ़रत से भर देता है। वह लाख कोशिश करता है कि घर पहुँचने पर अपने को पूरी तरह संयत रखे, पर घर पहुँचा नहीं कि उसके पहले ही चौखट पर नफ़रत जैसे आसन जमा कर बैठ जाती है।
           बहुत सोचने पर बस एक ही बात उसकी समझ में आती है...नीरा के हर समय उलझे-उलझे बाल...पसीने की दुर्गन्ध से सराबोर बदन...अस्त-व्यस्त और मसालों से अटी पड़ी साड़ी...बदरंग चूड़ियाँ और सूना-सूना सा चेहरा...। कितनी बार उसे झिड़का है कि इस रूप में वह उसके सामने न आया करे, पर वह है कि कोई असर ही नहीं...।
           दिन तो किसी तरह अलग रहने की वजह से बीत जाता है, पर रात का क्या करे? कभी-कभी न चाहते हुए भी जिस्म की ज़रूरत उसे बाँहों में लेने को मजबूर कर देती है, पर उसके बाद गिनगिनाहट की एक ऐसी तस्वीर उभरती है कि हफ़्तों तक वह उससे मुक्त नहीं हो पाता...। वह अपने को लाख समझाता है, पर उसका मन भी नीरा के मन की तरह बेअसर...।
           हाँलाकि वह अपनी घृणा को दबाने का भरसक प्रयत्न करता है पर इस दौरान मौसम की उमस...गर्मी...बरसात की लिजलिजाहट...बदन से उठती पसीने की कसाइन सी गन्ध उसे मैले से अटी पड़ी सड़क, खुले...बदबुआते मेनहोल...नाली मे लोटते जानवरों की याद दिला देती है...। इस तरह रहने से आदमी और जानवर में फ़र्क क्या रह जाता है?
          फ़र्क न रहने का फलसफा अक्सर उसे याद दिलाता है कि भयानक गन्दगी, टूटी-फूटी सड़कें...छुट्टे सांड से वाहनों की जंगली रफ़्तार और अपराध में अव्वल इस नर्क-तुल्य शहर में रोजी-रोटी कमाने की मजबूरी में उसे रहना पड़ रहा है।
         "हम चाहें या न चाहें, यह ऊपर आराम से बैठा जो ईश्वर है न, वह हमारी किस्मत में बहुत कुछ ऐसा लिख देता है, जिसे न चाहने पर भी हमें ढोना पड़ता है...उस वक़्त तक जब तक हम खुद शून्य में न मिल जाए।"
          विकास ने एक दिन हँसी-मज़ाक के महौल में बड़े अटपटे ढंग से यह बात कही थी और उसने कुछ भी रिएक्ट नहीं किया था, पर क्षणांश में ही उसे लगा था कि उसकी बात में दम है। नीरा उसे बिल्कुल भी पसन्द नहीं, पर फिर भी उसने चार बच्चे पैदा कर लिए...गन्दगी के ढेर में लोटने वाले सुअर...। माँ की तरह वे भी गन्दगी में ही लोटते हैं...माँ फूहड़ है तो बच्चे कहाँ से सलीका सीखेंगे?
         आकाश से पानी का झड़ना बदस्तूर जारी था। घर से बाहर निकलने का अर्थ था भारी परेशानी का सामना, पर घर के भीतर भी तो देर तक रहना उसे बर्दाश्त नहीं था...। उसने मौसम और सरकार दोनो को भद्दी सी गाली दी और तैयार होकर बाहर निकल आया। गुस्से में उसने टिफ़िन नहीं लिया, पर रेनकोट उठा लिया था। उसे अनजाने ही विकास की एक और बात याद आई,"हम जिसे चाहते हैं, उसे कभी नहीं भूलते...।"
          "भाई विकास, तुम कुछ भी कहो...मुझे तो सिर्फ़ अपने घर की चाहत है...ऑफ़िस तो सिर्फ़ टाइमपास और पैसा कमाने का स्थान है, पर यहाँ आकर भी घर...पत्नी...बच्चे मेरे जेहन में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते रहते हैं...।"
          नयन ने विकास की बात सिरे से ख़ारिज कर दी तो अशोक ने चुटकी ली,"अबे स्साले...यह चाहत होगी क्यों नहीं? बीबी जो इतनी खूबसूरत मिली है और बच्चे भी तो कितने प्यारे हैं...। इनके रहते भला किसी और की चाहत पनप सकती है...?"
         "और रमेशऽऽऽ, क्या बात है यार...हमेशा इतना चुप-चुप क्यों रहता है? भाभी के नाम पर कभी तो इस मातमी चेहरे पर गुलाल मल लिया कर...।"
          कल ऑफ़िस के कैण्टीन में कॉफ़ी-सैण्डविच के साथ कुछ बेतुकी बातें भी चली थी, पर इसमें उसकी कोई दिलचस्पी नहीं। उसके सहकर्मी अक्सर उसकी इस तटस्थता पर चुटकी लेते। वह हँसता भी था, पर जैसे ही नीरा का जिक्र आता, उसका मन तिक्त हो उठता। वह किसी से कुछ कह भी नहीं सकताकि पत्नियों को लेकर किया गया मज़ाक उसे रिलैक्स करने की बजाए परेशान ही करता है।
         सहसा उसका स्कूटर लड़खड़ाया तो विचार भी लड़खड़ा गए...। इधर उसे हो क्या गया है? हर वक़्त परेशान...अपने ही विचारों में खोया हुआ...। रास्ता चलते डगमगाता है...वह भले ही सपाट और सीधा हो...। सामने ऑफ़िस की साफ़-सुथरी, सपाट संगमरमरी ज़मीन, फिर भी एक लड़खड़ाहट और उससे उपजी खीज...। उसने पल भर रुक कर अपने को संयत किया, फिर स्कूटर को स्टैण्ड पर खड़ा कर मुड़ा ही था कि सामने से मीना आती दिखी। मीना को देखते ही उसकी खिजलाहट काले बादलों की तरह छूमंतर हो गई और मन बरसात के पानी से धुला-धुला एकदम ताज़े फूल सा...। सुबह नीरा के कारण मन के आकाश पर घृणा के जो बादल बिन बरसे ही आवारा टुकड़े की तरह तैर रहे थे, वे छँट गए थे और उनके छँटने के बाद अब खिली-खिली धूप थी।
        उसे देख कर मीना भी मुस्कराई,"हैलोऽऽऽ...आज इतनी जल्दी कैसे...?"
       "नहींऽऽऽ...जल्दी कहाँ? पौने दस तो हो ही गए...। तुम भी तो आज जल्दी ही आ गई हो...।"
       "अरे यारऽऽऽ...मुझे तो मजबूरी में आना पड़ता है। हरीश इसी समय कॉलेज जाता है न...सो मुझे भी ड्रॉप कर देता है। थोड़ा आराम हो जाता है यार, वरना रोज-रोज टैम्पो में धक्के खाओ...कीड़े से रेंगते हाथों की लिजलिजाहट सहो...। अरे, कभी-कभी तो ऐसे नमूनों से साबका पड़ जाता है कि पूछो मत...मन खट्टा हो जाता है...।"
         मुद्दतों से एक इच्छा भीतर पल रही थी। मीना की बात सुनते ही बाहर आ गई...मगर बेहद सावधानी से,"तुम कहो तो मैं तुम्हें ले लिया करूँ...।"
         और क्षणांश को वह जैसे सपनों की दुनिया में गुम हो गया...। हवा से बातें करता स्कूटर...उसकी कमर में हाथों का घेरा कसे बैठी मीना और बार-बार उसके तन को स्पर्शित करता उसका गदबदा बदन...। बस एक बार जागती आँखों से इस सपने को सच होते देखना चाहता है, पर यह मीना तो है ही बेरहम। उसने तो उसके सपने को ही तोड़ दिया,"अरे नहीं यार...यह तो रोज-रोज की बात है...फिर हरीश को भी तो कोई परेशानी नहीं...।"
          वह मायूस हो गया। मीना ने आगे कुछ कहने की गुंजाइश ही नहीं छोड़ी थी, फिर भी कहा,"यह तो अच्छी बात है।"
          उसकी बात पर मीना अनायास ही खिलखिला पड़ी तो वह अचकचा गया। कुछ कहना चाहा तो ज़ुबान जैसे तालू से चिपक कर रह गई...। इस दौरान अपने बॉब-कट गीले बालों को मीना ने हल्के हाथों से झटका दिया तो कुछ छींटे उसकी तरफ़ भी आए...। मीना को इस रूप में देख कर उसके भीतर कुछ उथल-पुथल सी मची...। मन शायद एक गहरे समुद्र माफ़िक ही होता है...समुद्र न चाहे तो कोई उसका राज़ जान नहीं सकता पर समुद्र को यह बात पता होती है कि उसके भीतर कितनी उथल-पुथल है...। कितनी हिलोरें किस मात्रा में उठ-गिर रही हैं...और उसके तल में कितने राज़ दफ़न हैं...।
           उसे अपना मन इसी समुद्र सदृश लगा। वह चाह कर भी उठने वाली हिलोर को पकड़ नहीं पा रहा था...। भीतर सपनों की मछलियाँ तैर रही थी, तो भय की शार्क भी थी, जो इन मछलियों के साथ उसके सपनों को भी निगल सकती थी, पर वह करे तो क्या? मन की हिलोरों को कैसे काबू में करे?
           मीना ने उस दिन खूब लाल चटक रंग की शिफ़ॉन साड़ी पहनी थी, तिस पर काली धारियों वाला लो-कट गले का ब्लाउज...कसी हुई अंगिया में उसके कसे बदन की एक-एक रेखा उभर कर उसकी आँखों के डोरे कसने लगी थी...। मीना वैसे भी काफ़ी खूबसूरत थी, तिस पर दूधिया बदन पर शोख रंग के कपड़े...।
           कभी-कभी मन को काबू में रखना कितना कठिन हो जाता है...। अचेतन मन बहकता है तो चेतना उसे रोकती है, पर बहकन तो उस भुरभुरे बालू की तरह है जो कस कर मुठ्ठी बन्द करने के बावजूद फिसल-फिसल जाती है।
           वह और मीना एक ही डिपॉर्टमेंट में हैं। रोज ही साथ उठना-बैठना होता है। अक्सर चाय-कॉफ़ी का दौर भी साथ चलता है...। मीना के साथ तो इतना वक़्त बीतता है जितना पत्नी के साथ भी नहीं, पर फिर भी पता नहीं क्यों पत्नी के साथ के पल कभी न ख़त्म होने वाली सज़ा बन जाते हैं और मीना के साथ...? लगता है जैसे क्षण भर का ही साथ मिला हो...। कहने-सुनने को न जाने कितनी ढेर सारी बातें हैं पर पल इतने संकरे कि भीतर घुस ही नहीं पाता।
           बारिश के उस सर्द-गर्म मौसम में वह पूरी तरह डूबता कि तभी मीना ने उसे कैण्टीन की ओर घसीट लिया,"याऽऽऽर...इस मौसम में गर्म चाय के साथ गर्मागर्म पकौड़े खाने की बड़ी इच्छा हो रही है...। अभी समय भी है और फिर यहाँ के पकौड़े इतने लज़ीज भी तो हैं...।"
          वह मना नहीं कर पाया। वैसे सुबह उसने चाय के साथ आलू के परांठे खाए थे। भूख लगभग न के बराबर थी, पर बावजूद इसके मीना का साथ...गर्म पकौड़े...चाय से उठती गर्म भाप...मीना की साँसों की तरह...। वह लोभ संवरण नहीं कर पाया।
          उसे हरीश से ईर्ष्या सी हुई। साऽऽऽला...खुद काला-कलूटा सा है पर बीवी परी सी पाई है। देख कर लगता है जैसे अभी-अभी दूध से नहा कर निकली हो, और एक वह है अभागा...कुछ भी मनचाहा नहीं...। घर के नाम पर बस एक पिंजरा...। दिन तो खुले आकाश के नीचे बड़ी आसानी से बीत जाता है पर शाम होते ही...?
          न चाहने पर भी एक गहरा अंधेरा उसके भीतर भरने लगता है। विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली कि बाहर के अन्धेरे को दूर करने के लिए ढेरों उपाय हैं...। हल्के से लेकर तेज़ रोशनी करने वाले बल्ब...सफ़ेद, दूधिया ट्यूबलाइटें...पूरे घर को नन्हीं-नन्हीं रंगीन रोशनी के टुकड़ों में बाँटने वाली झालरें...एक ऐसा उजाला फैला देती हैं कि आँखें चौंधिया जाती हैं, पर किसी से कोई पूछे कि भीतर के अन्धेरे को दूर करने के लिए कोई रोशनी है क्या?
          इस अन्धेरे का तो डॉक्टरों के पास भी बस एक ही जवाब..."देखिएऽऽऽ...सुबह की खुली हवा में चहलक़दमी कीजिए...जितना हो सके, फल-सलाद खाइए...और सबसे बड़ी बात...अपनी सोच सकारात्मक रखिए...। फिर देखिए, आप स्वस्थ कैसे नहीं रहते...?"
          मोटी फीस लेते वक़्त डॉक्टर की सोच सकारात्मक रह सकती है...सुन्दर नर्स से प्रेमालाप करते वक़्त उनके फेफड़े में हवा की जगह ढेरो खुशी भर सकती है, पर कोई उस डॉक्टर से पूछे कि देर तक क्लिनिक खुले रखने और छुट्टी में क्लब की रंगीनी में देर रात गुज़ारने के बाद जब वह घर पहुँचते हैं, तो किसकी सोच सकारात्मक रह जाती है और किसकी नकारात्मक...?
         अन्धेरे और रोशनी की टकराहट भरी सोच के साथ उसका मन नीम कड़ुवाहट से भर गया। मीना का जो क्षण भर का साथ था, मानो उसमें ग्रहण-सा लग गया।
         उसे महसूस हुआ कि उसका घर ‘घर’ नहीं, कबूतरखाना है...जहाँ दिन भर बीट करते कबूतर...उनकी गुटरगूँ...। उनके द्वारा की गई गन्दगी के कारण अजीब सी बदबू जो हर वक़्त हवा में ज़हर घोलती रहती है...। नीरा के बदन से फूटने वाली कसाइन सी गन्ध, इधर-उधर बिखरा सामान...बच्चों की जानलेवा ढीठ शरारतें...। यह औरत सारा-सारा दिन कोल्हू के बैल की तरह जुटी रहती है, फिर भी यह घर है कि उससे सम्भलता ही नहीं...और एक यह मीना है...। घर के सारे काम निबटाने के बाद नौकरी में भी सारा दिन खटना...ऑफ़िस की किचकिच में भी खिला हुआ चेहरा...हर पल दमकता-सा...। हरीश कितना भाग्यवान है...तन के सुख के साथ अर्थ का भी सुख है मीना से और वह...?
         "अरे, तुम्हारी कॉफ़ी ठण्डी हो रही है...।"
          मीना ने कहा तो वह चिंहुक पड़ा। सोच की अतल गहराइयों में वह इस कदर उतर गया था कि उसे याद ही नहीं रहा कि इस समय वह मीना के साथ कैण्टीन के खुशनुमा वातावरण में साँस ले रहा है और उसके सामने रखी कॉफ़ी ने भाँप उगलना बन्द कर दिया है।
          उसने ठण्डी कॉफ़ी उठा कर होंठो से लगाई ही थी कि सहसा ही उसे जैसे करंट सा लगा। एक विचित्र सनसनाहट थी जो पूरे शरीर में फैल गई थी, नसों में बहते खून के साथ...।
          मीना का रुमाल हाथ से छूट कर नीचे गिर गया था और वह झुक कर उसे उठा रही थी। उसका-कट गले वाला ब्लाउज ढीला होकर हल्का-सा ढुलक गया था और उसकी गोरी-स्वस्थ छाती साफ़ झलक रही थी।
          पूरी सहजता और अबोधता के साथ मीना झुकी, रुमाल उठा कर सीधी बैठी और फिर उससे बतियाने लगी, पर इस एक पल में वह सहज नहीं रह पाया। भीतर अनचाहे ही बहुत कुछ टूट-बिखर गया और उसकी चुभन उसे उद्वेलित और बेचैन करने लगी...। मीना कहीं उसकी मनस्थिति को भाँप न ले, इस लिए बहाने से वह उठ कर वॉशरूम चला गया...। इस दौरान उसे सहज होने के लिए रास्ता बहुत लम्बा लगा।
           इस ऑफ़िस में वह एक लम्बे अर्से से मीना के साथ काम कर रहा है...। पहले तो उसने कभी मीना की ओर कोई खास ध्यान नहीं दिया था पर साल भर पहले वह एक डिपार्टमेन्टल केस में उलझ गई थी और उसने ही उसकी सहायता करके उसे उबारा था।
            मीना उसके अहसान तले अपने को दबा हुआ महसूस करने लगी थी पर वह...? साल भर केस सुलझाते-सुलझाते वह खुद इतना उलझ गया था कि उसे याद ही नहीं रहा कि वह और मीना दोनो ही विवाहित हैं...और एक विवाहित स्त्री के लिए ऐसा लगाव महसूस करना अनैतिक है।
            अनैतिकता न कभी उसके खून में रही और न संस्कार में, पर इस दिल का क्या करे? मीना सामने आई नहीं कि अनैतिकता व नैतिकता की सारी परिभाषा टूट-बिखर जाती है और उसके भीतर बेचैनी भरी एक ऐसी अवशता उपजती है कि उसका मन दिमाग की सुनना छोड़ उसकी विवशता के अधीन हो जाता है।
           "मैं चलती हूँ रमेश..." वह कुछ कहता कि तभी मीना आसपास के लोगों से हाय-हैलो करती लिफ़्ट की ओर बढ़ गई। वह झुंझला कर रह गया। घर में अगर नीरा इस तरह की हरकत करती तो वह कतई बर्दाश्त न करता, पर यहाँ...?
            उसे खुद पर आश्चर्य भी हुआ। अक्सर जाने-अनजाने वह इस उपेक्षा का शिकार होने के बावजूद मीना को पूरी अहमियत देता है...। जहाँ छोटी सी भूल से भी नीरा दूर छिटक जाती है, वहीं हल्की सी खामोश झुँझलाहट उसे मीना के और करीब ला देती है।
            उसने जल्दी से कॉफ़ी और पकौड़े के पैसे दिए और लिफ़्ट की ओर मुड़ा ही था कि तभी,"अमाँ याऽऽऽर...आज सुबह-सुबह ही...?"
            चौंक कर उसने देखा तो सामने नितिन खड़ा था," हाँ यार...बारिश के कारण घर से थोड़ा जल्दी निकला सो ठीक से नाश्ता भी नहीं किया था...। क्या करूँ यार...भूख है कि बर्दाश्त ही नहीं होती...।"
            सहज होने की कोशिश में उसने बेवजह ठहाका मारा।
            नितिन भी अर्थपूर्ण ढंग से हँसा," यार...कौन सी भूख बर्दाश्त नहीं होती...? अमाँऽऽऽ, यारों से क्या पर्दा...? आजकल मीना से कुछ ज़्यादा ही चिपक रहे हो...। अरे यार, कुछ तो शर्म करो...। चार बच्चों के बाप हो...घर मे दुधारु गाय सी बीवी है...उससे मन नहीं भरता तो...।"
           नितिन ने अपनी बाँयी आँख दबा कर एक भद्दी-सी बात कही तो वह बिफर पड़ा,"सबको अपनी तरह समझते हो क्या...?"
           नितिन पर कोई असर नहीं। वह बेशर्मी से हँसता चला गया पर वह एकदम से भन्ना गया।
           साऽऽऽला...सबको अपनी तरह समझता है। सब जानते हैं इसके बारे में...आदमी नहीं, पूरा जानवर है साला...और वह भी औरतखोर...। रिटायर होने में अभी वक़्त है पर देखने में सत्तर का लगता है...। थुलथुली देह...गहरे रंग की मिचमिची सी आँखें...सिर के सारे बाल झड़ कर पूरा चन्दूल...। इक्के-दुक्के जो बाल बचे हैं वह भी हमेशा सींग की तरह सिर पर खड़े रहते हैं...। सड़ी हुई बत्तीसी पूरी सलामत है पर खींसे निपोड़ कर जब हँसता है तो भीतर का जंगली अन्धेरा बाहर तक पसर जाता है।
           हर आदमी अपनी चिढ़ इस पर जाहिर करता ही रहता है,"यह जितना बेतुका और बेहूदा है, इसकी बीवी उतनी ही सुघड़ और खूबसूरत है...। पता नहीं कैसे वह बेचारी इसे झेलती है...पर यह है कि इतनी खूबसूरत बीवी पाने के बाद भी इधर-उधर मुँह मारने से बाज नहीं आता...। इस ऑफ़िस की कोई भी लड़की ऐसी नहीं जिसके बारे में इसने भद्दा मज़ाक न किया हो...।"
            "मुँह मारने की इसी गन्दी आदत के चलते ही इसकी पत्नी से पटरी नहीं बैठती...।"
            "अमाँ याऽऽऽर...पटरी क्या बैठना...वह तो इसे ज़्यादा लिफ़्ट ही नहीं मारती...। बेमेल विवाह जो है, सो है ही, पर उससे ज़्यादा यह बड़ी हरामी चीज़ है...।"
            कल ही अभय ने कहा था,"यार...इतना हरामी और कम‍अक्ल होने के बावजूद है बड़ा भाग्यवान...पिछले हफ़्ते ही श्याम आर्ट गैलरी में इसकी पत्नी से इत्तफ़ाकन मुलाक़ात हो गई थी...। हमें तो यह बात इसने कभी बताई ही नहीं कि वह बेहद शानदार चित्रकार भी है। उसकी पेंटिंग्स की प्रदर्शनी थी वहाँ...।"
           "अरे, जिक्र कैसे करता...? पत्नी की प्रतिभा के आगे हीनभावना से जो ग्रस्त है...। मुझे तो यह मानसिक रोगी सा लगता है..." और फिर एक हल्का सा ठहाका।
           "काश! मेरा भी ऐसा भाग्य होता...।" डॉक्टर विश्वास ने अपने नाम के विपरीत एक गहरा निःश्वास भरा था।
           अजय ने उनकी पीठ ठोंकी थी,"याऽऽऽर, दूर के ढोल सुहावने होते हैं...। जब कोई चीज़ हमें मिल जाती है न, तब उसकी कोई कद्र नहीं होती और जब नहीं मिलती तो उसे पाने के लिए हम छटपटाते रहते हैं...और यार...दूसरे की बीवी वैसे भी बड़ी प्यारी लगती है...। साऽले, हम मर्दों की ज़ात ही ऐसी है...।"
          "अब इस रमेश को ही ले लो...। सुना है कि इसकी बेग़म भी कम खूबसूरत नहीं है, पर इसे देखो...उसके साथ कहीं आना न जाना...। कितनी बार कहा है कि कभी घर लेकर आओ, पर नहीं...।"
          "पर मीना के साथ...?" फिर एक जोरदार ठहाका...।
          वह एकदम उखड़ गया,"यारऽऽऽ, इस तरह के मज़ाक में मुझे मत घसीटा करो...। बेवजह तुम लोग मीना प्रकरण का प्रचार करते हो...। अरे, साथ काम करते हैं तो साथ उठना-बैठना तो होगा न...।"
          "अरे, उठो-बैठो...खूब गप्पें मारो, हमने कब मना किया है...पर भईये, घर का भी तो ख्याल करो...।"
           उसे अपने सहकर्मियों का इस तरह मज़ाक करना बिल्कुल पसन्द नहीं है, पर कर क्या सकता है? घर हो या ऑफ़िस या फिर कोई पब्लिक-प्लेस हो, इस तरह के द्वि‍अर्थी मज़ाक का जैसे चलन ही चल गया है...। इस मामले में अब तो लड़कियाँ भी पीछे नहीं...कहीं-कहीं तो वे लड़कों से भी दो कदम आगे ही हैं...।
           दूर क्यों जाया जाए? इस ऑफ़िस में ही कई बिन्दास लड़कियाँ हैं जो हमेशा किसी न किसी को फिकरे कसती ही रहेंगी या फिर खुलेआम अपने प्यार का इजहार कर देंगी...। इसके विपरीत जो शरीफ़ हैं, वे भी कभी-न-कभी अनाप-शनाप अफ़वाहों के घेरे में आ ही जाती हैं।
          उसे यह बात बिल्कुल पसन्द नहीं थी कि कोई मीना के साथ उसके सम्बन्धों को जोड़े। आखिर दोनो ही विवाहित हैं और इस बात को समझते भी हैं। मीना के मन की बात वह नहीं जानता पर अपने बारे में...?
          वह मीना के प्रति लगातार बढ़ते जा रहे अपने झुकाव को महसूस करता है और भरसक पीछे हटने की कोशिश भी करता है पर मीना को देखते ही पता नहीं क्या हो जाता है कि मन ही काबू में नहीं रहता। उस समय उसके सारे तर्क...घर, पत्नी, बच्चे...सब के सब कहीं खो जाते हैं...। मन की गहरी सुरंग में रोशनी की एक पतली सी लकीर के बीच रह जाता तो वह और मीना का मादक तन...। वह इस बेचैनी को भले ही किसी अन्धेरे में दफ़न करने की पुरजोर कोशिश करे पर आँखों के लाल डोरे उभर कर चुगली कर ही देते हैं। मीना भले ही अनजान हो पर उसके घाघ साथी कहीं-न-कहीं ताड़ गए हैं और इसीलिए जब-तब मीना को लेकर उससे मज़ाक करते ही रहते हैं।
           आज ही क्या बल्कि कई दिनों से लगातार होने वाली बारिश ने जितना उसे बाहरी तौर पर परेशान किया है, उससे ज़्यादा उसके भीतर की आग को भड़काया भी है...। मीना का उस तरह झुकना और उसके अनजाने ही उसकी गोरी छाती का झलक जाना...उफ़!
          ऑफ़िस के काम में अपने को उलझा कर सारा दिन उसने अपने उद्वेग को शान्त रखा पर शाम को घर पहुँचते ही लगा कि जिस नदी को शान्त कर वह धीरे-धीरे बहने को मजबूर कर रहा था, अचानक उसमें किसी ने बड़ा सा पत्थर फेंक दिया है।
          अस्त-व्यस्त हालत में नीरा दरवाज़े पर ही खड़ी मिल गई। शायद उसे आने में ज़्यादा ही देर हो गई थी और इस हाल में पत्नी का बेचैन होना लाजिमी ही था। नीरा भी बेचैन सी ही थी...पर उस बेचैनी ने उसके भीतर आग ही भर दी,"कुछ लाज-शरम बची है या नहीं? किस तरह दरवाज़े पर खड़ी हो?"
          "आप...।"
          उसने नीरा को बोलने ही नहीं दिया,"मेरी चिन्ता मत करो, अपनी करो...। अपने इस गन्दे रूप में तुम भीतर ही भली लगती हो...समझीऽऽऽ।"
          नीरा रुआंसी सी होकर भीतर चली गई। उसे पल भर के लिए पछतावा सा हुआ कि बेकार में बाहर ही इस तरह से डाँट दिया, पर दूसरे ही क्षण मिसेज अभिलाष से नज़र टकराई तो परकटे पंछी की तरह यह पछतावा भी दम तोड़ गया।
          आखिर मिसेज अभिलाष भी तो एक गृहणी हैं। जवान बेटे-बहुएँ हैं...नाती-पोते हैं...घर का पूरा काम है...। बहुएँ नौकरी करती हैं, बेटे बिजनेस और मिस्टर अभिलाष, वे भी ऑफ़िस...। अभी रिटायर होने में दो साल बाकी हैं। उम्र दोनो की कम नहीं पर मजाल है कि मिसेज अभिलाष के चेहरे पर हल्की सी शिकन भी झलके...। कपड़े भी एकदम साफ़-सुथरे...चुस्त-दुरुस्त...। इस उम्र में भी पूरी तरह एक्टिव...। क्या घर...क्या बाहर...। खुद कार ड्राइव करके उतनी ही कुशलता से बाहर का काम निपटाती हैं, जिस तरह भीतर का...।
         वह रुका तो मिसेज अभिलाष उसे देख कर मुस्कराई,"बड़ी देर कर देते हैं घर आने में...नीरा बेचारी बहुत परेशान हो जाती है...।"
         "हाँऽऽऽ, क्या करूँ...ऑफ़िस में काम का बहुत बोझ है, तिस पर यह बारिश का मौसम...।"
         "सो तो है...।"
         मिसेज अभिलाष बहुत बातूनी हैं। अक्सर वह पकड़ में आ जाता है तो खूब बतियाती हैं। बला की जानकारी है...घर-गृहस्थी के साथ देश-विदेश की घटनाओं की भी पूरी जानकारी रखती हैं...। छुट्टी का दिन उनके साथ कैसे गुजरता है, पता ही नहीं चलता...पर इस समय उसका मूड ज़रा भी नहीं था कि उनसे बातें करे। पीछा छुड़ाने की गरज से वह बेवजह हँसा और गैलरी में स्कूटर खड़ी कर कमरे में आ गया।
         कमरे में बिछी पलंग पर हमेशा की तरह उसका धुला, प्रेस किया हुआ कुर्ता-पायजामा और तौलिया रखा हुआ था। साइड टेबिल पर पानी का जग और गिलास था। नीरा जानती है कि ऑफ़िस से आने के बाद पहले वह दो-तीन गिलास पानी पीता है, थोड़ी देर सुस्ताता है और फिर नहा-धोकर ही नाश्ता करता है...।
        उसने पल भर बेवजह नीरा का इंतज़ार किया और फिर कपड़े लेकर बाथरूम में घुस गया।
        मौसम की उमस भरी चिपचिपाहट उसके पूरे बदन से जैसे चिपकी हुई थी। कपड़े भी कीचड़ के छींटो से तर-बतर थे। बाथरूम में ढेर सारा पानी था...आकाश में भरे हुए बादल-सा...शॉवरी आकाश से रिमझिम बरसने की तैयारी में...नल की मोटी धार से लरजता और किनारे बड़ी-बड़ी बाल्टियों में किसी कुएँ या तालाब की तरह भरा हुआ...पर कोई चाहे भी तो उसमें डूब नहीं सकता।
        उसे शुरू से ही खूब खुला-खुला और बड़ा सा नहानघर बनवाने का शौक था। छोटा था तो माँ-बाबूजी और आठ भाई-बहनों के साथ दो कमरे के मकान में रहता था...किराए पर...। ऊपर की मंज़िल पर मकान-मालिक का विशाल परिवार था तो नीचे उसका...। संडास एक ही था और वह भी कॉमन...। घर के बाहर, गली में बने बम-पुलिस की तरह उसकी भी हालत खस्ता थी। बड़े-बुजुर्ग तो तड़के उठ कर निपट लेते, पर बच्चे अपने हिसाब से उठते और अपने ही हिसाब से निबटते...।
       निबटने के इस धक्का-मुक्की के दौर में कोई न कोई बाहर गन्दगी फैला ही देता और फिर बाद में मार खाता था।
       पुरानी बातों को याद कर उसका मन घिना गया। तब यही हाल होता था कि वहाँ बमुश्किल से खड़े हो पाने वाले स्नानघर में नल से टपकते पानी से नहाते वक़्त वह यही प्रण करता था कि बड़ा होकर वह जितना बड़ा आदमी बनेगा, अपना स्नानघर उतना ही बड़ा बनवाएगा।
       इसी लिए बैंक की नौकरी में वह अफ़सर बना तो सबसे पहले लोन लेकर उसने बड़ा सा मकान बनवाया और उसमें एक बड़ा-सा, आधुनिक साज-सज्जा वाला बाथरूम भी...। वह ही जानता है कि इस खूबसूरत बाथरूम में नहाने का सुख क्या है...।
      वक़्त कैसे बीता, पता ही नहीं चला...। बड़ी बहन की शादी हो गई और सारे भाई नौकरी-चाकरी के सिलसिले में दूर-दराज निकल गए...। लाख समझाने पर भी माँ-बाबूजी किसी के साथ नहीं रहे...वे गाँव के अपने पुश्तैनी मकान में लौट गए।
      लगातार होने वाली बारिश के कारण हल्की सी ठण्ड हो गई थी पर फिर भी शॉवर के नीचे बैठ कर पानी की फुहार से नहाना उसे बहुत अच्छा लग रहा था।
      साबुन तो वह अपने बदन व चेहरे पर पहले ही लगा चुका था, बस अब झाबा से रगड़ना बाकी था। थोड़ी देर खूब अच्छी तरह नहाने से जब बदन की सारी मौसमी दुर्गन्ध व चिपचिपाहट के निकल जाने का इत्मिनान हो गया तो बदन को पोंछा और कुर्ता-पायजामा पहन कर बाहर बरामदे में आ गया।
      पानी की फुहार से बरामदा नम था। हल्की-हल्की बारिश फिर शुरू हो गई थी। उसके छींटों से बचने के लिए उसने कुर्सी पीछे खींच ली। इस मौसम में चाय-पकौड़े हो जाएँ तो क्या कहने...। वह अभी सोच ही रहा था कि नीरा सच में गर्म पकौड़ों से भरी प्लेट के साथ गर्मागर्म चाय ले कर आ गई। साथ में धनिया-पुदीने की हरी-खट्टी चटनी भी थी...उसकी फ़ेवरेट...। पकौड़े देख कर उसकी ‘वाह’ निकलते-निकलते रह गई...।
      नीरा को जिस तरह गन्दे ढंग से रहने की आदत है, वैसे ही उसकी उसे दुत्कारने की भी...। वह कभी अच्छा काम भी करती है तो न जाने क्यों भीतर स्थायी रूप से जड़ जमा कर बैठी कड़ुवाहट तारीफ़ बाहर ही नहीं आने देती...वह क्या करे?
      यद्यपि शुरू-शुरू में ऐसा नहीं था। उसने कभी नीरा को कभी बहुत प्यार नहीं किया पर इस तरह दुत्कारता भी नहीं था...पर इधर...?
      जबसे वह मीना के करीब आया है, न जाने क्यों नीरा से ऊब-सी होने लगी है...। वैसे नीरा है बहुत सीधी...। उसकी डाँट के पीछे वह अपनी ही किसी ग़लती को वजह मानती है और इसके लिए उसकी आँखें हमेशा याचक सी बनी रहती है, पर उसे लगता है कि नीरा का कुछ न कहना भी उसके तनाव का कारण बन जाता है...। वह एक अजीब तरह के अपराध-बोध से ग्रसित हो जाता हैपर यह सब क्षणिक ही होता है। नीरा सामने आई नहीं कि सारी कोमल भावनाएँ नफ़रत की गहरी-अबूझी खाई में समा जाती हैं और उस क्षण उसकी इच्छा होती है कि वह खुद भी उस खाई में छलांग लगा दे...।
      वह सोच ही रहा था कि तभी नीरा सामने आ खड़ी हुई। मसाले की गन्ध को हथेली से दूर करने की कोशिश में आँचल से हाथ पोंछते हुए,"अम्माँ की चिठ्ठी आई है...ऋचा की जहाँ बात चल रही थी, वहाँ से हाँ हो गई है...। इसी हफ़्ते यहाँ से सगाई करने को लिखा है...।"
      उसने नीरा से पत्र लेकर पढ़ा तो मन हल्का हो गया। सबसे बड़े भाई की बेटी ऋचा का उसके सांवले रंग की वजह से कहीं रिश्ता ही नहीं हो पा रहा था। उससे छोटी का ब्याह हो गया था पर वह अब तक बैठी थी।
      पूरा परिवार उसे लेकर परेशान था। पता नहीं कितने देवी-देवताओं की मन्नत अम्माँ ने मान रखी थी, वह अब जाकर सफ़ल हुई है। लखनऊ में दो-तीन महीने से बात चल रही थी...अब जाकर हाँ हुई थी। कानपुर पास है तिस पर उसका मकान भी बड़ा है...सगाई में कोई दिक्कत नहीं पेश आएगी। वह तो ऋचा की शादी भी यहीं से करने को कहेगा।
      सहसा उसके होंठो पर खुशी की एक क्षीण रेखा उभरी और फिर लुप्त हो गई। उसने नीरा को सख़्त अवाज़ में हिदायत दी,"देखोऽऽऽ...परसों अम्माँ-बाबूजी आ रहे हैं...भैया-भाभी, दीदी-जीजाजी सभी आएँगे...। तुम ऐसा करो कि घर की ठीक तरह से साफ़-सफ़ाई करके उन सबके रहने और खाने का इन्तज़ाम करो। किसी चीज़ की कमी नहीं होनी चाहिए...जिस चीज़ की भी ज़रूरत हो, मुझसे कहो...।"
      "ठीक है...मैं आज ही सब देख कर सामानों की एक लिस्ट बना दूँगी...आप कल शाम को ले आइएगा..." कह कर नीरा मुड़ी कि तभी उसका मन फिर तिक्तता से भर गया,"और सुनोऽऽऽ...घर तो साफ़-सुथरा रहना ही चाहिए पर तुम भी ज़रा कायदे से रहना...इस तरह गन्दी-सन्दी मत बनी रहना सबके सामने मेरी बेइज़्जती कराने...।"
       उसकी बात सुन कर नीरा चुपचाप चली गई तो वह भी कमरे में आकर पलंग पर लेट उपन्यास पढ़ने लगा...पर उपन्यास में मन नहीं लगा तो बाहर वाले कमरे का एक चक्कर लगा आया।
       बच्चे एक किनारे बैठे चुपचाप टी.वी देख रहे थे और नीरा रसोई में जुटी थी...शायद रात के खाने की ही तैयारी कर रही थी...। नीरा का चेहरा तो वैसे ही मासूम सा है...उसकी डाँट खाने के बाद उसमें और बेचारगी भर जाती है पर उसे क्या?
       जी भर के पकौड़े खाने के बाद भी न जाने क्यों उसे हल्की सी भूख लग आई थी...शायद रसोईं से उठती सोंधी गन्ध की वजह से...। खाने के बारे में पूछने की इच्छा तो हुई पर उसने पूछा नहीं। बन जाएगा तो नीरा खुद ही थाली परोस कर ले आएगी।
       कहाँ तो वह कमरे में अकेला लेटा-लेटा ऊब रहा था और उस दौरान वक़्त कब फिसल गया गहरे अन्धेरे में, उसे पता ही नहीं चला...। नीरा ने आकर जगाया तो उसने खाना खाया और फिर पलट कर सो गया।
       सुबह उठने पर मीना के सपने से खाली हुआ तो चकित रह गया...। गज़ब की औरत है यह...एक तरफ़ इतनी फूहड़ है और दूसरी तरफ़...? यह कब उठी...कब उसने घर की सफ़ाई की, उसे तो पता ही नहीं चला, जबकि घड़ी की सुई अभी सिर्फ़ आठ ही बजा रही है...। बच्चे भी तैयार होकर स्कूल जा चुके थे।
       आज घर आइने की तरह चमक रहा था, जैसे किसी ने जादू की छड़ी घुमा कर रातो-रात उसकी काया ही पलट दी हो...। पूरे घर का संगमरमरी फ़र्श ताज़े-ताज़े ठण्डे पानी से नहाया हुआ था...एक-एक कोना चमक उठा था। दरवाज़े पर पर्दे भी बदल गए थे। सोफ़े पर धुले हुए खोल चढ़ा दिए गए थे और कमरे के कोने में बिछी तख़्त पर नया चादर और कुशन-मसनद पर नए कवर थे...। उसका मन पहली बार खुश हुआ। उस मन पर वह अब कोई और परत नहीं चढ़ने देना चाहता था, पर...।
        पर वह जैसे ही बाहर आया, मन तिक्तता से भर उठा...आँगन में जैसे गन्दगी का ढेर था। एक तरफ़ ढेर सारे मैले कपड़े, तो दूसरी तरफ़ जूठे बर्तनों का ढेर...। उसे लगा कि अगर वह थोड़ी देर और वहाँ रुका तो अपने गुस्से पर काबू नहीं रख पाएगा और जब तक ऋचा की सगाई न हो जाए, वह वातावरण को बोझिल नहीं बनाना चाहता और अपने मन को भी...।
        उसने सचमुच अपने को थाम लिया था। नीरा से भी उस दिन संभल कर ही बोला। उसके इस तरह बोलने भर से ही नीरा को तो मानो खज़ाना ही मिल गया। उसके चेहरे की चमक जैसे इसी के इन्तज़ार में थी। कारण उसे समझ में नहीं आया पर फिर भी वह आह्लादित थी और काम में दूने उत्साह से जुट गई। दो दिनों के भीतर ही नीरा ने जैसे उसके सपनों के घर को उसे लौटा दिया था। अनायास, अनजाने ही उसके मुँह से उसके मन की बात निकल ही गई,"गज़ब की औरत है यह...।"
        तीसरे दिन सामान लाने के चक्कर में जितनी देर से ऑफ़िस गया, उतनी ही जल्दी लौट भी आया। अम्माँ, बाबूजी, भैया-भाभी, दीदी-जीजाजी, बच्चे...सभी आ गए थे और उनके आने से घर जैसे चहक उठा था...। उसके भीतर अरसे से चल रही कड़ुवाहट भी कहीं कोने में दुबक गई थी...।
       वैसे वह जानता था कि नीरा पूरे घर की बेहद दुलारी है। उसके चेहरे की हल्की-सी शिकन भी किसी को बर्दाश्त नहीं, तिस पर अगर किसी को ज़रा भी पता चल गया कि वह अक्सर उसके साथ बदसलूकी करता है तो उसकी ख़ैर नहीं...।
       इस दौरान ऑफ़िस में  वह मीना से भी कटा-कटा सा रहा था। उसी के कारण वह नीरा के प्रति कुछ अधिक ही विरक्ति से भर जाता था और जब तक उसके घर वाले यहाँ हैं, वह अपने हाव-भाव से कुछ भी ऐसा जाहिर नहीं होने देना चाहता था जिससे उन्हें ज़रा भी शक़ हो...।
     यद्यपि वह जानता था कि मीना को घरेलू फ़ंक्शन बहुत पसन्द है और अगर उसे ज़रा भी भनक लगती कि उसकी भतीजी की सगाई है तो वह बिना बुलाए भी चली आती और वह नहीं चाहता था कि मीना उसकी पत्नी को देखे भी...। इसी लिए उसने मीना ही क्या, ऑफ़िस में किसी को भी भनक नहीं लगने दी...।
     वह जितना अधिक साफ़-सफ़ाई और फ़ैशन को लेकर सजग है, मीना भी उतनी ही है, पर उसके दुर्भाग्य से उसे पत्नी ऐसी नहीं मिली। नीरा की फूहड़ता देख कर मीना उसका मज़ाक भी उड़ा सकती है और घरेलू जीवन को सार्वजनिक करना उसे ज़रा भी पसन्द नहीं है।
      उसने ऑफ़िस में तबियत खराब होने की अर्जी देकर तीन-चार दिनों की छुट्टी ले रखी है। उसकी जगह कोई और होता तो सारा दिन घर में रहता, पर उसका तो घर में मन ही नहीं लगता था।
      सुबह उठ कर बेवजह इधर-उधर डोलता...। कभी माँ-बाबूजी के पास तो कभी दीदी-जीजाजी के पास बैठ कर उनकी बातें सुनता, भविष्य की कुछ योजनाओं के ताने-बाने बुनता, फिर ऋचा के ब्याह पर होने वाले खर्चे को लेकर भैया के साथ परेशान होता।
      इतना सब करने के बाद भी समय जैसे उसके लिए पहाड़ बन गया था और वह इन दिनों उसके नीचे अपने को बेहद दबा हुआ महसूस करता।
      इधर जब से वे लोग आए हैं, नीरा उन्हीं के साथ सोती है...। माँ ने बाहर बरामदे में भी दो-तीन चारपाइयाँ डलवा दी थी। बाबूजी को वैसे भी कमरे में सोने की आदत नहीं है...गाँव में बाहर ओसारे में ही सोते हैं...। अम्माँ का मन होता है तो वे भी वहीं दूसरी चारपाई डाल लेती हैं, और अगर मन नहीं होता तो अन्दर कमरे की उमस में पड़ी रहती हैं...।
      उसने बाबूजी को कभी ज़्यादा किसी से बतियाते या मान-मनुहार करते नहीं देखा...। बस्स, चुपचाप पड़े आकाश की ओर टकटकी लगाए पता नहीं क्या देखते रहते हैं। ऐसे में उनका चेहरा इतना भावहीन होता है कि समझ में ही नहीं आता कि वे सुखी हैं या दुःखी...।
      गाँव में उन दोनो के अकेले रहने के बाद भी अम्माँ इतना व्यस्त दिखती हैं कि देख कर लगता है जैसे बड़ी भारी गृहस्थी संभाल रही हो...। घर में दो-दो बार झाड़ू-बुहारू करना, सारा दिन बाबूजी के लिए कुछ-न-कुछ बनाना...जूठे बर्तन मांजना...गेहूँ-मसालों को बीन-बान कर साफ़ करना और फिर रात के खाने के बाद घण्टा-दो घण्टा बाबूजी के पैर दबाना...।
      वह जब भी गाँव गया है, अम्माँ का काम देख कर खुद थक गया है, पर एक बात है जो उसकी सारी थकान, अम्माँ के प्रति उसके थकने को लेकर उगे गुस्से को पूरी तरह सोख लेता है...वह है अम्माँ का बेहद साफ़-सुथरा रहना...। उन्हें देख कर तो अब भी नहीं लगता कि वह आठ बड़े बेटों-बेटियों की माँ हैं और बड़े-बड़े नाती-पोते हैं, सो अलग...। उसे हमेशा लगता है कि साफ़-सुथरे ढंग से रहने का संस्कार उसे अम्माँ से विरासत में मिला है, पर यह नीरा...?
      एक-दो दिन ही घर में बैठ कर वह बेहद ऊब गया था। वही बच्चों की धमा-चौकड़ी...आँगन से आती खटर-पटर की आवाज़...रसोईं से हर वक़्त कुछ-न-कुछ बनने के कारण उठती सोंधी गन्ध, पर उसके कारण घर में भरा धुआँ...। सगाई की तैयारियों में जुटे चेहरे उसे बड़ी जल्दी उबाने लगे थे...। शाम को फ़ंक्शन था। सोचा थोड़ा घूम-फिर कर फ़्रेश हो ले...सो कुछ सामान लाने का बहाना कर के बाहर निकल गया। इस दौरान कुछ कहने को आगे बढ़ी नीरा को भी उसने अनदेखा कर दिया...।
      बाहर सड़क चहल-पहल से पूरी तरह भरी हुई थी...। यद्यपि सड़क बहुत चौड़ी नहीं थी पर कुछ छुटभैय्ये दुकानदार किनारे अपने ठेले और तख़्तों पर सामान डाल कर इस तरह पसरे थे जैसे उनके बाप का ही राज हो...। नगरपालिका सुन्दरीकरण के नाम पर कितनी बार उन्हें उजाड़ चुकी है, पर वे हैं कि बार-बार कुछ ले-दे कर फिर आबाद हो जाते हैं...।
       उस दिन ठेलेवाले से केला खरीद रहा था। उसके पीछे फुटपाथ पर कपड़ा फैलाए दुकानदार बड़ी ठसक से आवाज़ लगाता बोला,"अरे भैयाऽऽऽ...कभी हम छोटे दुकानदारों पर भी कुछ करम कर दिया कीजिए...। हमें भी अपने बाल-बच्चों का पेट पालना है...।"
       उसे उस पर तरस नहीं बल्कि गुस्सा ही आया। फुटपाथ पर दुकान लगा कर ये अपने बच्चों का पेट पालने की बात तो सोचते हैं, पर यह नहीं सोचते कि इस तरह सड़क को घेरने के कारण कम जगह के चलते कितनी दुर्घटनाएँ हो जाती हैं...कितने घर सूने हो जाते हैं और कितनी आँखों की बिनाई कम हो जाती है...पर इन्हें क्या...?
       सड़क पर बढ़ती भीड़ ने उसके सोचने का रुख़ घर की ओर मोड़ दिया। पर घर पर भी चैन कहाँ...? इधर सड़क पर ढेरों शोर पसरा है, तो घर में भी रिश्तेदारों की आवाजाही से शोर भरा है, पर बावजूद इसके घर तो जाना ही है...।
       शाम को ढेर सारे मेहमान आ रहे हैं। उनके लिए क्या इन्तज़ाम है, खास तौर से खाने का...। नीरा की फूहड़ता कहीं बेइज्ज़त न कर दे, आज यह भी तो देखना है...। सोच की सुनसान सड़क पर चलते-चलते कब घर आ गया, पता ही नहीं चला...।
       घर पहुँच कर सबसे पहले वह रसोईंघर की ओर बढ़ा, पर आधे रस्ते ही जैसे ठहर सा गया...। सामने, गैस के पास नीरा अपने काम में पूरी तरह खोई हुई थी।
       उसने उस समय चटख लाल रंग की कढ़ाईवाली शिफ़ॉन की साड़ी पहनी हुई थी...उसकी गोरी, सुडौल कलाइयाँ वैसी ही लाल रंग की ज़रीवाली चूड़ियों से भरी थी और उसका बदन नई अंगिया से कसा हुआ था।
       उसने भी मीना की तरह लो-कट के गले वाला ब्लाऊज पहन रखा था और बाल भी रोज की तरह उलझे और अस्त-व्यस्त नहीं थे, बल्कि उन्हें बड़े ही करीने से सुलझा कर एक खूबसूरत जूड़े के रूप में बाँधा गया था...। चेहरे पर भी शायद किसी ब्यूटी-सैलून से कराया गया सौम्य-सा मेक‍अप था...। नीरा के लाल होंठ उस क्षण उसे सबसे सुन्दर लगे...ऐसा लग रहा था जैसे किसी भी पल वे कानों में मिश्री घोल देंगे...।
       वह एकदम हतप्रभ था। उसकी पत्नी इतनी अधिक खूबसूरत थी और उसने आज से पहले कभी यह महसूस ही नहीं किया था...। उसकी ज़िन्दगी के खूबसूरत और क़ीमती लम्हें तो मीना के नाम गिरवी हो गए थे...। दिन भर तो मीना आँखों के सामने होती है, रात में भी उसकी बन्द पलकों पर भी कब्ज़ा जमा कर बैठ जाती है। कभी-कभी, अनिच्छा से ही सही, नीरा को बाँहों में भरता है, पर ख़्यालों में मीना की देह ही उस घेरे में होती है...।
       नीरा ने उसे देख लिया था, पर कहा कुछ नहीं...। इस सच को वह भी जानता था कि नीरा सीधी ज़रूर है, पर मूर्ख नहीं...। अपने प्रति उसकी ऊब को वह किस कदर महसूस करती है, यह उसकी आँखों में जमी हर वक़्त की नमी उजागर कर देती है, पर वह क्या करे...? कहीं-न-कहीं दिल के हाथों वह भी मजबूर हो जाता है।
       नीरा ने फिर उसकी ओर एक प्रश्न सा उछाला तो खिसियाया सा वह बैठक में आ गया। वहाँ किसी बात पर जोरदार ठहाका लगा था, पर उसे लगा जैसे सब उस पर हँसे हों...।
       नीरा ने आज उसके भीतर एक अजीब तरह की उथल-पुथल मचा दी थी और वह अनचाहे ही एक अपराध-बोध से घिर गया था। उसने पहली बार शिद्दत से महसूस किया कि वाकई उसने नीरा के साथ कुछ ग़लत किया है, जबकि माँ तो हमेशा कहती है कि इंसान को उसके बाहरी सौन्दर्य से नहीं, बल्कि भीतर के गुणों से जानना चाहिए। माँ के दिए संस्कार को वह भूल कैसे गया...?
       पिछले हफ़्ते कपूर ने भी तो कहा था,"कुछ तो शरम किया कर...घर में कम सुन्दर बीवी नहीं है, पर तू है कि...।" उस समय तो कपूर पर उसे बहुत गुस्सा आया था पर इस क्षण...?
       "पाऽऽऽपा...सब लोग आ गए हैं..." सोच के समन्दर में डूबते-उतराते कितना वक़्त बीत गया, उसे पता ही नहीं चला। बेटे ने मेहमानों के आने की सूचना दी तो वह चौंक ही गया,"आँ...अच्छा...।"
        रात दस-ग्यारह बजते-बजते सब कुछ बहुत अच्छे तरीके से निपट गया...और यह सब नीरा की वजह से ही हुआ...। अमंआँ-बाबूजी तो मानो उस पर निहाल हो-होकर उसकी बलैयाँ ही लिए जा रहे थे,"हमारी नीरा तो लाखों-करोड़ों में एक है...।"
        सारा काम निबटाने के बाद नीरा कमरे में आई तो वह जाग ही रहा था। बत्ती बुझी होने के कारण वह समझ नहीं पाई और कपड़े बदलने लगी, पर तभी उसने उसे खींच कर बाँहों में भर लिया,"अभी ऐसे ही रहो...बहुत सुन्दर लग रही हो...।"
        "अरे...अरेऽऽऽ, क्या कर रहे हैं...?" नीरा एकदम अचकचा गई थी,"कपड़े बदल कर अभी माँ के पास जाना है...।"
        "नहींऽऽऽ...आज माँ के पास नहीं...मेरे पास रहोगी...।" उसने नीरा को अपने अंकपाश में भरा तो उसका चेहरा इस तरह लाल हो उठा जैसे अभी-अभी डोली से उतरी हो और वह...? वह भी उस रात सब कुछ भूल गया था...मीना को भी...उसके पास उस क्षण थी तो नीरा की देह और वह...।
         सुबह जब सो कर उठा तो बहुत हल्का महसूस कर रहा था। नीरा कमरे में नहीं थी। शायद सब के लिए सुबह का नाश्ता तैयार कर रही थी।
          पल भर वह भी पलंग पर पड़ा अपना आलस दूर करता रहा, फिर मंजन-ब्रश कर बरामदे में आ गया। घर में फिर शोर-शराबा और बच्चों की धमा-चौकड़ी शुरू हो गई थी...। और दिनों की अपेक्षा घर कुछ ज़्यादा ही गुलज़ार हो उठा था...।
         वह अखबार पढ़ ही रहा था कि नीरा चाय ले आई। मुस्करा कर उसने नज़र उठाई तो सहसा ही उसके भीतर एक सन्नाटा उतर गया...उसके सामने रात की नीरा तो कहीं थी ही नहीं...।
         अपने को संभालने की गरज से उसने उधर से नज़र हटा कर आकाश की ओर देखा। आकाश बिल्कुल साफ़ और खुला-खुला सा था। बारिश होने की भी कोई संभावना नहीं थी, पर बावजूद इसके इक्का-दुक्का काले बादल बदनुमा दाग़ की तरह खुले आकाश में इधर-उधर तैर रहे थे...।
         ‘बारिश हो न हो...ये हवा में तैरते बादल तो हमेशा रहेंगे...।’ उसने सिर को हल्के से झटका और फिर बाथरूम में घुस गया...आज ऑफ़िस भी तो जाना है...।



                                                                           
(चित्र गूगल से साभार )