Friday, January 21, 2011

ये डाक्टर हैं या...

( किस्त-पच्चीस )


कानपुर के सरकारी उर्सला अस्पताल के गेट पर कुछ कलाकारों ने कई दिन पहले एक नुक्कड नाटक " तोड़फोड़ से क्या होगा ?" करके मरीज के तीमारदारों को सही सीख दी है , पर उन डाक्टरों को कौन सीख देगा जिनके भीतर इन्सानियत के बचे रहने की बात कौन कहे , उनकी तो आत्मा ही जैसे मर गई है । दम तोड़ते मरीज और उसके तीमारदार को सान्त्वना देते समय उनकी जीभ जैसे ऐंठ जाती है , पर मौत का ऐलान करते वक्त वे दिलेर हो जाते हैं ।
कानपुर के मोतीझील चौराहे के पास अशोक नगर में स्थित बडे नाम-दाम कमाऊँ गैस्ट्रोलाजिस्ट डा. पीयूष मिश्रा भी ऐसे ही दिलेर डाक्टर हैं...। एक दिन व्यक्तिगत वाहन से गम्भीर हालत और अर्धबेहोशी में एक महिला लाई जाती है । डाक्टर से अनुरोध किया जाता है कि बाहर आकर जरा उसे चेक कर के अपनी राय दे दें । तीमारदार घबराहट में हैं , पर इतने महान डाक्टर बाहर आएँ...उनकी इज़्ज़त पर बट्टा नहीं लगेगा...? बहरहाल बहुत कहने पर कि मरीज अन्दर आने की स्थिति में नहीं है , वे दो मूर्ख-से , ढीले-ढाले से लोगों को स्ट्रेचर के साथ बाहर भेजते हैं । अर्धबेहोश महिला को वे सहायक नहीं , बल्कि उस महिला के भाई ही बडी मुश्किल से गोद में उठा कर स्ट्रेचर पर लिटाते हैं । सहायक तो गाडी और क्लिनिक के बीच की नाली के उस पार बस हाथ बाँधे खडे हैं । ज़मीन पर पडे स्ट्रेचर पर लिटाने के प्रयास में उस महिला का सिर नाली में जाते बचता है । सहायकों से जब एक बार फिर अनुरोध किया जाता है तो वे भाइयों के साथ मिल कर स्ट्रेचर अन्दर ले तो जाते हैं , पर स्ट्रेचर फिर वहाँ भी बेदर्दी से ज़मीन पर...। लगभग दस मिनट बाद डा. पीयूष मिश्रा अपने कमरे से निकल कर आते हैं , झुक कर माताजी-माताजी की पुकार लगाते हैं और फिर महिला की बडी बहन की ओर घूम कर कहते हैं , " ये बचेगी नहीं... चाहिए तो पी.जी आई ले जाइए ..."और फिर बिना कुछ और कहे-सुने बडे सधे कदमों से वापस अपने कमरे में जाकर आवाज़ लगाते हैं , नेक्स्ट...।
 अर्धबेहोशी में ही महिला की आँखें थोडी खुलती हैं...शायद उसने सुन लिया हो " बचेगी नहीं...।" उसकी आँखें फिर बन्द हो जाती हैं । महिला की बडी बहन रोने लगती है । वहाँ पर आए अन्य मरीज और उनके तीमारदार उसे ढाँढस बंधाते हैं , हौसला देने की कोशिश करते हैं पर डाक्टर और नर्सें जैसे पत्थर के बुत...। दूसरे मरीजों से फीस वसूलने में लगे हैं । हिम्मत हार चुके तीमारदारों के लिए सान्त्वना के बोल से राहत पहुँचाना उनके लिए क्या बहुत भारी था ?
मानती हूँ कि तोडफोड से क्या होगा...। पर क्या ऐसे डाक्टरों को दो-तीन तमाचे रसीद करने का मन नहीं करता जिसे इतनी भी अक्ल नहीं कि तीमारदारों में से किसी को अलग ले जाकर उसे खतरे की बात बताई जाए , मरीज के सामने नहीं...। मरीज के सामने ऐसी बात बोल कर उसके जीने की जिजीविषा तोड देना कहाँ की इन्सानियत है...? डाक्टरी की पढाई के समय उन्हें नम्रता , धीरज और अन्तिम साँस तक मरीज को बचाने की कोशिश का जो पाठ पढाया जाता है , मोटी फीस वसूलते समय वह सब भूल क्यों जाते हैं...?
तीमारदार तो संयम रखेंगे पर कितना ? स्ट्रेचर पर जिस दुर्गति से महिला को ले जाकर ज़मीन पर पटक दिया गया , उस वक्त उसकी बहन अगर डाक्टर या उसके सहायक को दो-तीन चाँटे जड देती तो शायद गलत न होता...। डाक्टर क्या इन्सानियत से भी बडे हो गए हैं कि किसी असमर्थ को चेक करने के लिए बाहर भी नहीं आ सकते ?
काश ! ऐसे डाक्टरों की आत्मा उस समय भी मरी ही रहती जब उनका कोई अपना इसी तरह दम तोडने की कगार पर होता...।
वैसे अच्छाई और बुराई हर पेशे में है । बुरे लोगों से इतर कुछ डाक्टर ऐसे भी रहे जिन्हों ने पैसे को अहमियत न देकर न जाने कितने लोगों को मौत के मुँह में जाने से बचाया है...। बड़े मुश्किल प्रयोग करके एक कीर्तिमान स्थापित किया है...।
 इस पुस्तक में मैने जो कुछ भी लिखा है , वह व्यक्तिगत द्वेष न होकर ग़लत कामों के प्रति मेरी बग़ावत है...। किसी खास व्यक्ति के प्रति यदि किसी के मन में कुछ कारण से रोष होता है तो इसका यह मतलब नहीं लगाया जाना चाहिए कि उस पेशे से जुड़े हर व्यक्ति के प्रति रोष है...। आज हमारे मन में जो कटुता भरी है वह समाज की अव्यवस्था के प्रति है...। आज इंसान ने ही ‘इंसान’ को नैतिक रूप से इतना नीचे गिरा दिया है कि अब ‘इंसान’ कहलाने में भी शर्म आती है...।

 ( जारी है )



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