Sunday, January 16, 2011

मायनों को नकारती इंसानियत

( किस्त-चौबीस )


वक़्त के साथ इंसान की उम्र सरकती है और इसके साथ ही ज़िन्दगी और मौत के बीच का फ़ासला भी कम होता जाता है , पर किसी को भी न तो इसकी परवाह होती है और न ही फ़ुर्सत कि गम्भीरता से इसके बारे में सोचे कि अपनी ज़िन्दगी में उसने कितना कुछ निरर्थक किया है और अब जितनी भी ज़िन्दगी बाकी है , उसमें कुछ ऐसा करना चाहिए जिससे सार्थकता निरर्थकता पर हावी हो जाए ।
           पर ऐसा कुछ भी नहीं होता । आदमी जब तक जीता है , अपनी ज़िन्दगी पर कुछ इस कदर फूला रहता है कि उसे लगता है कि जैसे वह अमिट है...कभी ख़त्म होगा ही नहीं...। दूसरा मौत के मुँह में समा गया तो क्या हुआ , वह तो ज़िन्दगी का भरपूर मज़ा ले ही रहा है । मैने भी बड़ी शिद्दत से इस बात को महसूस किया है कि ज्यादातर लोग अपनों की जुदाई को भी बड़ी जल्दी भूल जाते हैं । माना कि जाने वाले के साथ कोई नहीं जाता , जाना चाहिए भी नहीं , पर किसी के अन्तिम दर्द को महसूस तो किया जा सकता है...। अगर ऐसा नहीं है तो फिर जानवर और इंसान में फ़र्क ही क्या रह जाएगा...बल्कि अब तो मुझे लगता है कि इंसान के मुक़ाबले पशु ज्यादा बेहतर हो गया है...।
           क्या उस कुत्ते की कहानी ( या सच ) किसी को याद है जिसने सुनामी की भयंकर तबाही के बीच भी अपनी ज़िन्दगी की परवाह न करते हुए अपने मालिक के पाँच साल के बच्चे को बचाया । जिस समय सुनामी की ऊँची लहरें पूरी भयंकरता के साथ गर्जना करते हुए सैकड़ों ज़िन्दगियों को लीलती हुई न जाने कितने और को उदरस्थ करने के लिए पूरी दिलेरी के साथ आगे बढ़ रही थी , उस समय कुछ लोग समय रहते ऊँचाई की ओर भागने में सफ़ल भी हो गए थे । उन्हीं में एक माँ भी थी जो अपने दो साल के बच्चे को गोद में उठाए और पाँच साल के बच्चे का हाथ थामे तेज़ी से भाग रही थी । इस भगदड़ में पाँच वर्षीय उस बच्चे का हाथ अपनी माँ के हाथ से छूट गया । बच्चा लुढ़कता हुआ फिर नीचे मौत की लपकती लहरों तक पहुँचता कि तभी उसके पालतू कुत्ते ने लपक कर उसके कपड़े का एक कोना मुँह में पकड़ लिया और फिर पूरी ताकत से उसे ऊपर घसीट ले गया । बच्चे की ज़िन्दगी बचाने वाले उस कुत्ते को भले ही बाद में उस माँ ने अपना तीसरा बच्चा मान कर पूरा प्यार-दुलार दिया पर इससे इतर उसकी वफ़ादारी की गाथा कहीं दर्ज़ हुई ? किसी इंसान को उससे सीख मिली या किसी ने उसे किसी पुरस्कार के काबिल समझा ?
           काश ! शिक्षा के मंदिर स्कूलों और जीवन देने वाली जगह अस्पतालों में छोटी-छोटी बच्चियों को भी अपनी हैवानियत का शिकार बनाने वाले लोग उस कुत्ते से ही कुछ सीख ले पाते तो कितना अच्छा होता...।  मुझे तो आज कई बार किसी इंसान की तुलना कुत्ते से भी करते हुए लगता है कि उस कुत्ते का अपमान हो रहा है...। छिः , पशु से भी बदतर हो इंसान कितना नीचे गिर गया है । एक जानवर द्वारा किसी की ज़िन्दगी बचा लेने का जुनून उन डाक्टरों के भीतर भी उभरता जो अधिक-से-अधिक ऐशो-आराम की ज़िन्दगी पाने के लिए मासूमों के जीवन से खिलवाड़ कर जाते हैं, कभी उन्हे अपाहिज बना कर भीख माँगने के लिए तो कभी मानव अंगों का व्यापार करने में दूसरों के साथी बन कर...। काश ! इस दुनिया में वह मगरमच्छ निर्दयी व स्वार्थी इंसानों का हृदय परिवर्तन कर पाता , जिसने तट पर बसे एक मछुआरे का दिया भोजन खाने के कारण सुनामी की तबाही में भी उसे अपनी पीठ पर बैठा कर न केवल भीषण लहरों से उसकी रक्षा की बल्कि उसे सुरक्षित स्थान तक भी पहुँचाया...। यह हम सब जानते हैं कि मगरमच्छ कितना भयानक जीव होता है । चाहे तो पूरा-का-पूरा इंसान साबुत निगल जाए पर आज इस प्रगतिशील युग में वह भी बुरा करने में इंसान से पीछे हो गया है...।
           अच्छाइयों और बुराइयों से लबरेज़ न जाने कितनी सच्ची घटनाएँ कहानी के रूप में देश-सीमा से परे होकर बहुत कुछ सिखाने के लिए हमारे आसपास बिखरी पड़ी हैं , पर जब कोई इससे कुछ अच्छा लेना चाहे , तभी तो इसकी सार्थकता है...।

( जारी है )

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