Wednesday, December 15, 2010

उफ़ ! भयानक अनुभव से गुजरते हुए... ( 1 )

( किस्त - बीस )



           वैसे तो ज़िन्दगी का नाम ही है , अनुभवों से गुज़रना...। आए दिन इन्सान नित नए अनुभवों से गुजरता है और उनसे बहुत कुछ सीखता भी है , पर अशक्तता के क्षणों में अगर कुछ ऐसे अनुभवों से गुजरना पड़े जिनकी आपने कल्पना भी न की हो तो क्या गुजरती है...? वह क्षण भले ही बीत जाए पर याद बार-बार कँपा देती है...। लखनऊ के पी.जी.आई के नर्क-वास के दौरान ऐसे ही कुछ अनुभव हुए जिन्हें याद करके आज भी या तो सिहर जाती हूँ या फिर वहाँ के लोगों के प्रति मन घृणा से भर जाता है...।
            लीवर ट्रान्सप्लाण्ट के वार्ड में स्नेह को भर्ती किए हुए लगभग एक सप्ताह बीत गया था । पीलिया हटने के लिए उसके पेट में स्टैंटिंग के बाद तीन थैलियाँ लगी थी और वह चलने-फिरने में पूरी तरह लाचार थी ।
            उस वार्ड में यद्यपि सभी मरीज गम्भीर थे , पर फिर भी वे थोड़ा बहुत चल-फिर सकते थे । एक मेरी बहन ही ऐसी थी जिसे पल-पल सहारे की ज़रूरत थी , पर बावजूद इसके वहाँ ज़्यादा देर ठहरना मना था । वार्ड में न कोई आया थी , न कोई वार्ड ब्यॉय...। पॉट भी देना हो तो खुद दो...बाथरूम ले जाना हो तो खुद...। चाहे जैसे करो...अलग से पैसा देने पर भी कोई करने को तैयार नहीं...। शौचालय वार्ड से काफ़ी दूर था । इतने अशक्त मरीज को किसी तरह व्हीलचेयर पर वहाँ तक ले भी जाओ तो शौचालय के भीतर भी थोड़ी दूर तक चला कर ले जाओ । हम भाई-बहन उसके साथ कभी-कभी खुद भी लड़खड़ा जाते थे...। पर मजबूरी थी...। प्रेशर आने के डर से उसने तो खाना-पीना ही छोड़ रखा था , शौचालय की उस भीषण गन्दगी से बचने के लिए हम भी जैसे उपवास ही करते थे । इससे मुझे भी कमज़ोरी सी महसूस होने लगी थी । किसी तरह अपने अशक्त हाथों से उसे संभालती , गन्दे पॉट को खुद पानी डाल कर धोती और तब जाकर उसे फ़ारिग करती...। इस दौरान भी कभी शौचालय का नल सूखा , तो कभी हाथ धोने के लिए पानी नहीं...। सो इन सब कामों के लिए भी पीने के पानी से काम चला कर सन्तोष कर लेते । जब नर्क में हैं ही तो गन्दगी से क्या घिनाना...किसी तरह स्नेह ठीक होकर वापस घर चले तो फिर कभी बिना परखे किसी अस्पताल का रुख़ नहीं करेंगे...।
            इतने कष्ट में हफ़्ता भर किसी तरह शौच का मामला निपट रहा था कि एक सुबह प्रेशर महसूस होने पर हक्का-बक्का ही रह गई...। उस मंजिल के एकमात्र शौचालय को बड़े विध्वसंक तरीके से तोड़-फोड़ डाला गया था । भीतर चार-पाँच मजदूर पूरे फ़र्श को तोड़ रहे थे...। वॉश बेसिन का नल बन्द कर दिया गया था और जगह-जगह बड़ी-बड़ी गिट्टियाँ पड़ी हुई थी । भीतर कमोड में मरीजों द्वारा या मजदूरों द्वारा इतनी गन्दगी कर दी गई थी कि उधर नज़र पड़ते ही आँखें जैसे पथरा गई...। बगल में एक छोटा , गन्दा सा गुसलखाना था जिसमें पीडियाट्रिक वार्ड के नन्हें बच्चों को उनकी माएँ मजबूरी में शौच करा रही थी...। बच्चे तो फ़ारिग हो रहे थे पर बड़े कहाँ जाएँ...?
             परेशान होकर तोड़फोड़ का कारण पूछा तो पास खड़े एक रोबदार आदमी ने  गुर्रा कर कहा , " ज़मीन दरक गई थी , ठीक की जा रही है...। "
            " भैयाऽऽऽ , कब तक ठीक होगा ? "
            " पता नहीं...। " काम बन्द करके उसका दरवाज़ा भी मुँह पर बन्द कर दिया गया , " आप लोग वेटिंग रूम की लैट्रिन में जाइए...नीचे हॉल में है...। "
              सुबह का वक़्त था...सभी का प्रेशर  तेज़ था...। कुछ को बर्दाश्त था तो कुछ को नहीं...। जो लोग बर्दाश्त कर सकते थे , वे दूसरे शौचालय की ओर दौड़ पड़े , पर जिन्हें नहीं था , वे...?
              मैं प्रेशर में तो थी ही , उधर बहन को भी महसूस हो रहा था...। पहली बार इस ज़रूरत के वक़्त आँखों में आँसू आ गए...। घर में तो देशी और विदेशी , दोनो तरह के साफ़-सुथरे शौचालय बने हैं और वो भी कमरे से अटैच...। मन में कोई भय नहीं कि आवश्यकता के वक़्त इन्तज़ार करना पड़ेगा , पर यहाँ...? काश ! कोई प्राइवेट कमरा मिल जाता तो शायद इतनी परेशानी न झेलनी पड़ती...। पर - " कमरे की कौन कहे , आप को बेड मिल गया , यही काफ़ी है मैडमऽऽऽ...वरना मैने तो सुना है कि ऊपर से कुछ दीजिए तो फटाक से कमरा क्या , पूरा सुइट बुक करा लीजिए...। "
              एक लड़का जो मेरा बड़बड़ाना सुन रहा था , मेरी बगल से यह कहता निकल गया...।
              परेशान होकर भाई भी इतने लम्बे-चौड़े बरामदे में इधर से उधर भटकता शौचालय की तलाश कर रहा था । आखिर थोड़ी देर बाद परेशानी दूर हुई...। लिफ़्ट से नीचे जाकर बच्चों के इमरजेन्सी वार्ड के पास एक साफ़-सुथरा शौचालय मिला । यद्यपि लाइन वहाँ भी थी पर ऊपर के वार्ड की तरह बद‍इन्तज़ामी नहीं थी और इसी के चलते राहत थी...।

( जारी है )
            

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