Thursday, November 18, 2010

दर्द की यह कौन सी ‘ मंडी ’ है ? -( 6 )

( किस्त- अठ्ठारह )



एक बात गौर करने की है कि जहाँ जागरुकता है , धन है , नाम है और है दमदार शख़्सियत , वहाँ देखिए...अधिकतर यही होता है कि बड़ी-से-बड़ी बीमारी से भी आदमी स्वस्थ होकर बाहर आ जाता है ।
                   मेरी नज़रों के सामने ही एक नेतानुमा आदमी इमरजेन्सी वार्ड में भर्ती हुआ । साथ में तीन-चार बन्दूकधारी...। पता नहीं किस पार्टी से था , पर उसकी आवभगत में कोई कमी नहीं की गई । उन महाशय से कोई परिचय नहीं हुआ , पर न केवल रोबदाब से , बल्कि डील-डौल से भी वे नेता सरीखे ही लगे...। गैस की मामूली सी समस्या में भी उन्हें न केवल इमरजेन्सी में भर्ती किया गया बल्कि दूसरे दिन उन्हें कमरा भी मिल गया , जबकि हम सब के लाख अनुरोध के बावजूद हर बार यही कहा गया कि कोई भी कमरा खाली नहीं है । गनीमत है आपको यहाँ एक बेड तो मिल गया , पर इसे भी दो दिन के अन्दर खाली करना पड़ेगा...।
                   हर कोई अपनी भावनाओं को कागज पर उकेर नहीं पाता । जिस दिन यह सम्भव हो गया , उस दिन यह धरती छोटी पड़ जाएगी और दुःख का एक ऐसा महाग्रन्थ तैयार होगा जिसके लिए धरती रूपी लायब्रेरी में जगह ही नहीं बचेगी...। वहाँ की अलमारियों में अनगिनत किताबें पहले से जो अटी पड़ी है...।
                   दुःख का सन्दर्भ आते ही मेरी आँखों के आगे उस साँवली सी , कम उम्र महिला का चेहरा घूम जाता है , जो भीषण शोर से भरे उस बरामदे में भी एक सन्नाटे सी पसरी थी । बनारस ( वाराणसी ) से आई उस महिला के साथ उसका पति , देवर , देवरानी , जेठानी और यहाँ तक कि दो-चार पड़ोसियों का परिवार भी था , पर इतने लोगों से घिरे होने के बावजूद वह एकदम निःसहाय और अकेली थी...। घर पर एक विवाहिता बेटी और दस साल का बेटा उसके इन्तज़ार में थे , पर उन्हें नहीं पता था कि माँ अब कभी लौट कर घर नहीं आएगी...। पीलिया और लीवर सोरायसिस से ग्रसित माँ को चमत्कार भी नहीं बचा सकता...। आखिर क्यों...?
                   जब डाक्टरों ने मेरी बहन के साथ उस महिला के भी न बचने की बात कही थी , तब मेरे दिमाग़ में यह बात आई कि आज के युग में जब वैज्ञानिक बड़ी-बड़ी बातें ही नहीं करते बल्कि उसे कर भी गुज़रते हैं तो उसे चमत्कार का नाम दिया जाता है । आज जब कई होनहार डाक्टर अपने पेशे को गर्वित करते हुए मौत के मुँह में पहुँचे हुए इन्सान को भी जीवनदान देते हैं , तब उसे काबिलियत , हिम्मत , बुद्धिमत्ता और पेशे के प्रति ईमानदारी का दर्ज़ा दिया जाता है...। इसी युग में बिना बेहोश किए मरीज से बात करते हुए ओपन हार्ट सर्जरी की जाती है...सड़े-गले लीवर को हटा कर नया लीवर ट्रान्सप्लान्ट किया जाता है...कैन्सर जैसी भयानक बीमारी तक से निज़ात दिलाया जाता है , तब कुछ जगह , कुछ इन्सानों के साथ भेदभाव क्यों...?  
                   ऐसे में उन ‘कुछ’ डाक्टरों की काबिलियत और ईमानदारी पर अविश्वास किया जाए...? या फिर मान लिया जाए कि उन्हें सिर्फ़ सरकार से मिलने वाली अपनी मोटी तनख़्वाह और सहूलियतों से मतलब है...। ऐसे लापरवाह डाक्टरों को अस्पताल में रख कर मरीजों के साथ खिलवाड़ करने का हक़ किसने दिया है...? किसने उन्हें ज़िन्दगी की आखिरी घड़ियाँ गिनते हुए मरीजों के सामने ही उनकी मौत का ऐलान करने का हक़ दिया है...? क्या उन्हें इतनी भी तमीज़ और अक़्ल नहीं है कि परिजनों को अलग बुला कर ढाँढस बँधाते हुए एक शालीन तरीके से उनके प्रिय के विदा होने का संकेत दिया जाए...।
                   एक गम्भीर मरीज के सामने दूसरे मरीज की मौत की बात मज़ाक के तौर पर करते हुए क्या शर्म नहीं आती ऐसे डाक्टरों को...? अल्ट्रासाउण्ड कक्ष में मेरी बहन का अल्ट्रासाउण्ड करते दो डाक्टरों का मज़ाक मुझे भीतर तक साल गया था और साथ ही मेरी बहन को इतना कँपा गया था कि उसने घबरा कर डाक्टर की बाँहें हिला दी थी , " डाक्टर साहबऽऽऽ , क्या मैं...? "
                  घबरा कर मैने उसे चुमकारा , " नहीं...तुम नहीं , घबराओ नहीं...ये दूसरे के लिए बात कर रहे हैं...। "
                  उसने आँखें तो बन्द कर ली थी लेकिन एक अनजाना सा जो भय उसके चेहरे पर चिपक गया था , वह मेरे बार-बार चुमकारने और सान्त्वना देने के बावजूद नहीं हटा था...।
                  यह कैसा क्रूर मज़ाक था...? बाहर , वाराणसी से आई वह महिला आँखों में सन्नाटा भरे टुकुर-टुकुर इधर-उधर देख रही थी । उसके मायूस परिजन उदास थे और भीतर यह मज़ाक , " अरे यार...कल उसकी स्टैन्टिंग करनी है...। पीलिया चरम पर है...लीवर लगभग फ़ेल है...।"
                  " तो ? "
                  " अरे तो क्या...? अगर कल सुबह तक ज़िन्दा रहा तो उसका ऑपरेशन करूँगा भाई...। "
                  " आप अपने को क्यों कहते हैं सर , यह कहिए कि अगर वह कल सुबह तक ज़िन्दा रही तो ऑपरेशन करूँगा..." और फिर एक जोरदार ठहाका...।
                   सच कहूँ...मन-ही-मन मैने कहा था कि उस औरत की मौत की कामना करने वाले क्रूर , बेदिल इन्सान , काश ! तुम सुबह का सूरज सच में न देख पाओ...। मेरी बहन को कँपा देने वाले , एक दिन कोई तुम्हें भी ऐसे ही कँपा दे...।
                   आज मैं इन पन्नों पर अपना दर्द अंकित करते हुए यही कामना करती हूँ कि ऐसे लोगों के लिए मेरी बद्दुआ फलीभूत हो जाए...। पर ईश्वर क्या सबकी सुनते हैं...? शायद नहीं...। तभी तो बाद में फोन पर ही पता चला कि दस साल के उस बेटे की माँ लौट कर अपने घर नहीं गई , अपने बच्चे को दुलारने के लिए... गया तो उसका निर्जीव शरीर...।


( जारी है )
              

2 comments:

  1. मैने 37 वर्ष एक अस्पताल म्रे नौकरी की है लेकिन जितना आपने पूरी कहानी मे हाल बताया है। वो आपका अपना अनुभव लगता है। शायद आपने तस्वीर का दूसरा रुख नही देखा जहाँ डाक्टर लोग या मेडिकल स्टाफ जिन परिस्थितियों मे काम करते है। उन्हें तो हर मरीज का दुख देखना होता है लेकिन कई बार रिश्तेदारों को लगता है कि पूरी तव्ज्जो केवल उन्हीं की तरफ हो\इसी पर वो डाक्टर से दुर्व्यवहार करने लगते हैं। मानती हूँ कि बहुत से कर्मचारी अपनी संवेदनायें खो चुके हैं लेकिन वो सब इसी समाज से आये हैं। और समाज मे संवेदनायें कहाँ रही हैं क्या मिलावट करने वाले इन डाक्टरों से कम हैं आप समाज को सुधार दें सब कुछ सुधर जायेगा। असल मे समाज से ही संवेदनायें समाप्त हो रही हैं। डाक्टरों मे भी मरीजों मेभी। मरीज भी तो केवल अपने लिये सोचते हैं न डाक्टर के लिये और न दूसरे मरीज के लिये। खैर आप भुक्त भोगी हैं शायद आप सही हों। वैसे भी अब दिन पर दिन हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं हो सकता है ये आज का सच हो। अगर है तो हम सब भी इसके जिम्मेदार हैं जो चुपचाप तमाशा देखते है। शुभकामनायें।

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  2. बहिन मानी जी आपने सही कहा है-" हर कोई अपनी भावनाओं को कागज पर उकेर नहीं पाता । जिस दिन यह सम्भव हो गया , उस दिन यह धरती छोटी पड़ जाएगी और दुःख का एक ऐसा महाग्रन्थ तैयार होगा जिसके लिए धरती रूपी लायब्रेरी में जगह ही नहीं बचेगी...।"
    आपका यह संस्मरण अत्यन्त मार्मिक है ।पढ़क्रर काव्य जैसा आनन्द आया ।

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