Tuesday, November 16, 2010

दर्द की यह कौन सी ‘ मंडी ’ है ? -( 5 )

( किस्त- सत्रह )



संकट की घड़ी में हर किसी को एक विश्वास की सख़्त ज़रूरत होती है । हर कोई ऐसे क्षण में चाहता है कि अस्पताल पहुँचते ही इलाज शुरू हो जाए । मरीज अगर ज्यादा ख़तरे में है तो प्रावेट डाक्टर अपनी साख बचाने के चक्कर में उसे हाथ नहीं लगाना चाहते । ऐसे में आदमी कहाँ जाए...? एक इमरजेन्सी वार्ड , आई.सी.यू या वेन्टीलेटर का ही सहारा बचता है पर वहाँ भी भ्रष्टाचार ने इस कदर पाँव पसार रखे हैं कि देख कर मन मायूस हो जाता है...। एक भुक्तभोगी सज्जन ने एक माने हुए अस्पताल का नाम न लेकर सिर्फ़ इशारा करते हुए बताया कि वहाँ आई.सी.यू में मरीज को वेन्टीलेटर पर रख कर कई दिनों तक उसके ज़िन्दा रहने का नाटक किया जाता है और उसके परिजनों को बार-बार विश्वास दिला कर कि उनका मरीज अभी ज़िन्दा है और बच जाएगा , उनसे मोटी फ़ीस वसूली जाती है जबकि सच्चाई यह होती है कि मरीज कब का मर चुका होता है...। मानवता को कलंकित करने की यह कैसी इंतहा है...? 
                 इस सन्दर्भ में जब मैने उनसे उस अस्पताल की पोल-पट्टी खोलने की बात की तो एक अनजाना भय उनके चेहरे पर उभर आया और वे दस मिनट में मुझे समझा कर इस तरह खिसके जैसे कभी वहाँ थे ही नहीं...।
                उनके जाने के बाद भी उनकी बातें मुझे बहुत कुछ सोचने और कहने को मजबूर करती रही । उन्होंने एक तरह से ग़लत नहीं कहा , " यह किसे सुधारने की बात कह रही हैं ? जानती हैं यह कौन सा डिपार्टमेन्ट है...ज़िन्दगी बचाने वाला...। आप इससे टक्कर लेंगी तो चुटकियों में मसल कर रख देगा ज़िन्दगी...। "
               " अरे , ये पाँव में चुभे मामूली काँटे नहीं हैं कि खुरचा और काँटा बाहर...। ये भाले हैं...भाले...सीधे छाती में उतर जाएँगे और आप कुछ नहीं कर पाएँगी...। आपका तो जो नुकसान होना था , वो हो गया न...आप क्या कर पाई...? आपके सामने इलाज की लापरवाही के चलते आपकी बहन सैप्टीसीमिया ( सैप्टिक ) की गिरफ़्त में आ गई और उसकी ज़िन्दगी ख़ात्मे की कग़ार पर है...उसकी ज़िन्दगी आप बचा पा रही हैं...? आपको और आपके भाई-बहनों को पागलों की तरह डाक्टर के पास भागते हुए मैने देखा है...। अभी तक तो आपने उनसे कोई बदसलूकी भी नहीं की...कोई नुकसान नहीं किया , फिर भी ये भाले चुभे न...? अब आगे की सोचिए...। जो नुकसान होना था , हो गया , उसकी भरपाई नहीं हो सकती । आप लेखिका हैं , इतना तो समझती ही हैं न कि आज के ज़माने में ज्यादातर लोगों के सीने में दिल नाम की चीज ही नहीं है...। ये पत्थर हो चुके हैं...। इस पर सिर पटकने से कुछ नहीं होगा...बल्कि अपना सिर ही फूटेगा...। दूसरों की भलाई के चक्कर में खुद क्यों घायल होना चाहती हैं...? हर आदमी इस संकट से जूझ रहा है , मर रहा है , पर कर कुछ नहीं पा रहा है...। जो पुरजोर कोशिश करते भी हैं , अन्त में वे भी हार कर बैठ जाते हैं...जैसे मैं...। "
                 " जैसे मैं..." ये शब्द जैसे मेरे भीतर जाकर सन्नाटे की तरह पसर गया था । मेरे परिवार की तरह शायद उन्होंने भी कोई बड़ा हादसा झेला था , तभी मन में इतनी कड़ुवाहट...इतनी आग...और भी बहुत कुछ उन्होंने अपशब्दों के माध्यम से कहा था , जिन्हें यहाँ दोहराना मैं उचित नहीं समझती , पर इतना जरूर समझ गई हूँ कि अगर सारे भुक्तभोगी एकजुट हो गए तो ज़िन्दगी बचाने का नाटक करते हुए चुपके से उसे ख़त्म करने वाले मुर्दादिल भ्रष्टाचारियों के जीवन में आग ही लग जाएगी...। अगर सरकार ही जागरुक हो जाए तो न जाने कितनी ज़िन्दगियाँ नर्क की ज़िन्दगी जीने से बच जाएँ...।


( जारी है )
                  


3 comments:

  1. बहुत सच लिखा है आपने...काँटे नहीं , भाले हैं ये...। किसी को तो इनके खिलाफ़ आवाज़ बुलन्द करनी ही होगी...। मरने के डर से जीना तो नहीं छोड़ा जा सकता न...?
    मेरी बधाई...।

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  2. बहुत ही सही ....।

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