Sunday, November 7, 2010

दर्द की यह कौन सी ‘ मंडी ’ है ? - ( 2 )

( किस्त - चौदह )



 रात के सन्नाटे का कलेजा भी जैसे चाक-चाक हो गया था । कोई किसी से कुछ बोल नहीं रहा था । एक नन्हीं सी मौत ने उन्हें और भी डरा दिया था । मुझे और मेरी बहन को भी...। अर्धबेहोशी की हालत में भी शायद उसने माँ की चीख और दर्द को महसूस कर लिया था और अब भय के मारे काँपने लगी थी ।
                 इतनी देर से अवाक खड़ी मैं घबरा कर उसके पास दौड़ी और उसे एक मासूम बच्चे की तरह ही पुचकारने लगी , " घबराओ मत...कुछ नहीं हुआ है...। देखो , तुम ठीक हो न...। बस दो-चार दिन की बात और है , फिर हम घर चलेंगे...।"
                मैं ज्यादा देर तक अपने को सँभाल नहीं पाई । काफ़ी देर से आँखों के भीतर जो ढेर सारा पानी जमा हो गया था , वह सहसा ही बाँध तोड़ कर बह निकला । सुनील और इंदर भैया अब भी अवाक थे । सुनील ने बहन का वह हाथ सँभाल रखा था , जिसके ठीक बीचो-बीच वीगो की कीलें ( ? ) जबरिया ठोंक दी गई थी और अब उसमें इतनी असहनीय पीड़ा थी कि बेहोशी में भी बहन कराह रही थी ।
                स्नेह का वीगो वाला हाथ बुरी तरह सूज गया था । उसमें से कई बार खून भी निकला । उस ठिगनी सी हेड नर्स से कहा तो वह गुर्रा कर आगे बढ़ गई , " अब एक ही मरीज है क्या मेरे लिए...? जाकर वहाँ से रुई ले आओ और खून साफ़ कर दो...।"
              " तो फिर तुम लोग किस लिए हो...? " एक और मरीज के वीगो से खून निकला था , वह भड़क गया पर उससे ज्यादा वह ढीठ और दम्भी नर्स , " हम लोग किस लिए हैं , बता दिया तो अभी हवा निकल जाएगी...समझेऽऽऽ...। " फिर क्षणांश में सँभल भी गई , " उधर एक सीरियस मरीज है , उसे देख लूँ , फिर आती हूँ...तब तक तुम रुई से खून साफ़ करो...। "
              " सालीऽऽऽ , हरामज़ादीऽऽऽ...। " एक गाली फुसफुसाहट-सी उभरी और फिर हवा में घुल गई ।
               सामने के बेड पर से एक बूढ़े -से व्यक्ति यह सारा खेल बड़ी देर से देख रहे थे । उन्होंने नर्स को दूर जाते देखा तो धीरे से बोले , " बेटा , बोलने से कुछ नहीं होगा , बल्कि बात और बिगड़ेगी...। चौबीसो घण्टे किसी-न-किसी की होने वाली मौत ने इन्हें पत्थर बना दिया है...। "
               मुझे लगा कि वह आदमी नहीं , बल्कि उनका भय बोल रहा है । मैं मानती हूँ कि ढेर सारे लोगों में वे किसका-किसका दुःख बाँटें , पर अगर वे दुःख बाँट नहीं सकती तो किसी का दुःख बढ़ाने का भी उन्हें कोई हक़ नहीं है...। रही पत्थर होने की बात , तो वह पत्थर उस वक़्त क्यों पिघलता है , जब उनका कोई अपना मरता है ? उसी अस्पताल में कुछ और डाक्टर और नर्सें भी तो हैं , वे पत्थर सरीखा व्यवहार क्यों नहीं करते...?
              इमरजेन्सी वार्ड का मतलब क्या होता है ? आपातस्थिति में आने वाले मरीज ही तो वहाँ आते हैं न...। वे अपनी ज़िन्दगी से खुद ही इस कदर हारे होते हैं कि दूसरे मरीजों की बनिस्पत उन्हें ज्यादा प्यार , सहानुभूति और सहयोग की आवश्यकता होती है , न कि खड़ूस स्वभाव की...। डाक्टरी पेशा बहुत पवित्र समझा जाता है पर कुछ कुसंस्कारी इसे कलंकित कर देते हैं...इस पेशे के प्रति अविश्वास पैदा कर देते हैं...।
              इसी सन्दर्भ में इमरजेन्सी वार्ड की वह काली , भद्दी और क्रूर-सी दिखने वाली नर्स का चेहरा आज भी आँखों के आगे घूम कर उसके प्रति घॄणा जगा रहा है , जिसने नस ढूँढने के नाम पर यहाँ-वहाँ बार-बार सुई कोंच-कोंच कर मेरी बहन को तड़पाया था , जिसके कारण उसके हाथों से तीन-चार बार खून की धार बही और जिसके कारण स्नेह का हाथ इस क़दर सूज गया था कि हल्का-सा स्पर्श भी उसे तड़पा जाता । जितनी बार बहन तड़पती , उतनी ही बार मैं भी तड़प जाती और मन-ही-मन उस नर्स को श्राप देती कि एक दिन वह भी इसी तरह तड़पे...काश !




( जारी है )

1 comment:

  1. शायद ब्भुक्त भोगी ही इस दर्द को महसूस कर सकता है।

    ReplyDelete