Saturday, October 23, 2010

और इन्तज़ार ख़त्म हुआ पर... ( 3 )

( किस्त - बारह )



पी.जी.आई के लम्बे-चौड़े रास्ते पर इधर से उधर...फिर उधर से इधर...न जाने कितने घण्टों का सफ़र तय किया गुड़िया और अंकुर ने , उसका कोई हिसाब नहीं , पर उनके पैर और सब्र पूरी तरह से जवाब देते , इससे पहले ही एक डाक्टर ने बड़ी दया भरी निगाह से ताकते हुए कहा , " चलिएऽऽऽ , आप इतना परेशान हो रहे हैं तो किसी तरह गैस्ट्रो विभाग के जनरल वार्ड में एक बेड दे देता हूँ...। आप मरीज को ले आइए...।"
                      " पर डाक्टर...प्राइवेट वार्ड का क्या हुआ...?"
                      " आप प्राइवेट वार्ड तो भूल ही जाइए...। अरे यहाँ तो एक बेड के लिए भी मारामारी है और आप कमरे की बात कर रही हैं...। खाली हो जाएगा तो मैं खुद ही दे दूँगा...। आपको परेशान होने की ज़रूरत नहीं...।"
                       काला नाग ‘ इन्तज़ार ’ था , पर फुंफकार रहा था - वहाँ का स्टाफ़...। ज़िन्दगी में पहली बार शर्मिन्दगी , बेचारगी और मजबूरी का एक अजीब सा अहसास हुआ और लगा मानो हम जनरल वार्ड में नहीं , बल्कि किसी बड़े शहर के फुटपाथ पर पड़े हैं...एकदम गरीब और लाचार से दिखते हुए...। जिसका मन हुआ , आकर एक ठोकर मार कर चला गया...। शौचालय का नर्क यहाँ भी था । नर्स से लेकर झाड़ू लगाने वाली तक , सभी इस तरह डपट कर बोल रही थी जैसे वे सब बड़ी अधिकारी हों और हम सब उनके मातहत...।
                      आसपास कुल छः या सात बेड थे । किसी पर कोई ग्रामीण बैंक का मैनेजर भर्ती था तो किसी पर कोई बिजनेसमैन...। सबकी अपनी-अपनी प्रतिष्ठा था...। इन्हीं के बीच एक-दो सामान्य जन भी थे , पर हाँक सबके साथ एक सी थी...। कुछ इस तरह जैसे समाजवाद पूरी तरह इसी अस्पताल में उतर आया हो...। यहाँ न कोई छोटा , न कोई बड़ा...जूता एक बराबर...। इलाज कराना है तो पहला सफ़ल मन्त्र - सिर पर जूता खाओ , पर बोलना मत...बोले तो ख़ैर नहीं...।
                      मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रहा था । बीमार बहन के साथ रह कर खुद भी बीमार सी हो गई थी । शरीर की ताकत निचुड़ गई थी पर भीतर की आवाज़ अब भी दबंग थी ।
                      बहन ( स्नेह ) डर गई...मेरी दबंगता से वह हमेशा डरती रही है...। उस दिन तो और भी डर गई , " दीदीऽऽऽ , कुछ बोलो मत...। तुम जानती नहीं , ये लोग अगर चिढ़ गए तो इलाज के बहाने ये सब मेरी दुर्दशा कर डालेंगे...। हम गन्दे बाथरूम में चले जाएँगे...तुम परेशान मत हो...।"
                     " नहीं ,मैं कुछ नहीं कहूँगी...पर किसी डाक्टर को तो आना चाहिए न...।" मैने उसे धीरज तो बँधा दिया पर भीतर से उबल रही थी । बाथरूम की सफ़ाई को लेकर जिस तरह से एक नर्स फुफकारी थी , कोई और जगह होती तो या तो उसके गाल लाल कर देती या घसीट कर उस नर्क में उसे ही धकेल देती , पर आह ! मेरी मजबूरी...! ज़िन्दगी में इतनी लाचार कभी नहीं हुई । उस वक़्त भी नहीं जब सिर्फ़ एक बेटी होने की वजह से मेरे तथाकथित ससुर अपशब्दों की बौछार करते किसी कटखने जीव की तरह काट खाने को दौड़ते थे...और उस समय भी नहीं जब पति नाम का जीव अपने चारित्रिक पतन को छिपाने के लिए त्रिया-च्रित्तर का रोल निभाता सारा दोष मुझपर मढ़ देता...। ज़िन्दगी मेरे लिए ईश्वर की दी हुई एक ऐसी सौगात थी जिसे हर हाल में मैं सम्हाल कर रखती थी । दूसरों के दिए ग़म को मैं झटक देती और खुद के लिए खुशी को जन्म देती । यही मेरी ताकत थी और इसी ताकत ने मुझे दबंग बनाया । पर मेरी बहन...? दुःख मैं सहती , हार वो जाती...। पर आज तो वह पूरी तरह से हारी हुई थी क्योंकि वह दुःख मेरा नहीं , पूरी तौर से उसका था और उसे सहना , न सहना उसका काम था...। शरीर से तो वह सह रही थी पर भीतर से हारती हुई दिन-ब-दिन चटक रही थी...सूखी हुई धरती की तरह...।
                     पर मेरी बहन ही क्यों ? रात के निपट अंधेरे में सबके अपने आँसू थे...मच्छरों की कटखनी चुभन थी और थी झींगुरों की भद्दी आवाज़...मरिजों की कराहट...ठोस ज़मीन से उपजी तन की अकड़ाहट...घोर निराशा...। क्या होगा ? स्नेह ठीक होगी या नहीं ? कानपुर के डाक्टरों ने तो जवाब दे दिया था , अगर यहाँ के डाक्टरों ने भी कुछ कह दिया तो...? आँखों में ठहरे आँसू के साथ यह सवाल भी ठहर गया था , पर इस ठहराव के बीच कोई नन्हा सा कंकड़ फेंक कर पानी में हल्की सी हलचल पैदा कर देता , " देखिएऽऽऽ , घबराइए नहीं...यहाँ काफ़ी बड़े और अनुभवी डाक्टर हैं...। जिसका कहीं इलाज नहीं , उसका यहाँ है न...। आप मेरा यक़ीन कीजिए , आपकी बहन बहुत जल्दी स्वस्थ होकर घर जाएँगी...।"
                    सान्त्वना मन का दर्द कुछ हद तक कम कर देती है पर तन की पीड़ा तो डाक्टर ही कम कर सकता है , दवा देकर...। स्नेह की पीठ में भयानक दर्द था । दर्द निवारक क्रीम की पूरी ट्यूब खाली हो जाती पूरे दिन में । थोड़ी देर दर्द कम रहता पर अगले ही क्षण कराहट...। मैं सारे समय खड़े रह कर या तो क्रीम मलती , या गर्म पानी की थैली देती...। छोटे से स्टूल पर बैठे-बैठे कमर टूट सी गई थी । खड़ी रहती तो टाँगें दुखने लगती...। बहन की पीड़ा के आगे अपना कष्ट कुछ भी नहीं था पर बावजूद इसके , एक अजीब सी बेचैनी थी जो जीने नहीं दे रही थी...। काश ! मेरे हाथ में कुछ होता...। बहन का ही नहीं , न जाने कितनों का कष्ट दूर कर देती...। जादू की छड़ी...कोई मन्त्र या फिर...?



( जारी है  )


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