Tuesday, October 19, 2010

और इन्तज़ार ख़त्म हुआ पर...( 1 )

( किस्त - दस )



सुबह के सात बजे के खड़े-खड़े आखिर बारह बजे रजिस्ट्रेशन की बारी आ ही गई...। लगा , इंतज़ार की घड़ी खत्म हो गई पर उस ख़त्म होने के बीच में कई चीजें टूटी-बिखरी...। कईयों की आस टूट गई तो कई हताशा में खुद बिखर गए...। हर कोई जल्दी-से-जल्दी निजात पाना चाहता था वहाँ से...उस लम्बी जानलेवा लाइन से...और इसी आशा में कोई कभी लाइन तोड़ कर आगे पहुँच जाता तो कभी दूसरी , बन्द खिड़की की ओर भागता  , यह सुन कर कि वह भी भीड़ को देखते हुए बस खोली ही जाने वाली है । पर उसकी आशा निराशा में तब बदल जाती , जब गार्ड के साथ-साथ आगे खड़े लोग भी उसे अपशब्द कहते हुए पीछे धकिया देते...। धक्का-मुक्की के बीच इन्सानों का रेला चेन टूटे डिब्बों की तरह इधर-उधर डोलता...फिर स्थिर होता...।
                         शुक्र था कि भयंकर उमस , धक्का-मुक्की और लम्बे इन्तज़ार के कारण पैरों में बढ़ते दर्द के बावजूद अंकुर ने अपनी जगह नहीं बदली और कछुए की चाल से आगे बढ़ती लाइन के साथ ही आगे बढ़ा ।
                         रजिस्ट्रेशन होने के बाद हमने राहत की साँस ली , पर यह क्या ? अंकुर और गुड़िया तो भीड़ के साथ ही अन्दर की ओर भागे । वहाँ डाक्टर को दिखाने के लिए नम्बर लेना था , फिर मरीज को लेकर जाना । एक और राक्षसी इन्तज़ार...? हताशा के काले बादल हमारी आँखों में उमड़-घुमड़ रहे थे पर बरस नहीं पा रहे थे...।
                        पी.जी.आई पहली बार आए थे इसी लिए पता नहीं था कि घर से निकलते वक़्त ही हमने अनजाने ही एक ऐसे अंधेरे रास्ते पर अपने कदम डाल दिए हैं जो आगे चल कर संकरा...और संकरा होता चला जाएगा...। कभी फुरसत मिले तो दूसरे से मिलने के बहाने ही सही , ऐसे संकरे रास्ते से गुज़रिएगा जरूर...जिसके आजू-बाजू गन्दगी से बजबजाती नालियाँ हों , कुत्ते...भेड़-बकरियाँ...नंग-धड़ंग बच्चे छुट्टे घूम रहे हों और बीच में गढ्ढों से भरी ऊबड़-खाबड़ सड़क...एक-दूसरे से टकराते-धकियाते वाहन और आसपास गूँजती माँ-बहन की गालियाँ...। शायद यह गुज़रना आज के असंवेदनशील होते जा रहे मन को हल्के से दर्द का अहसास कराए...और साथ ही सोचने पर मजबूर भी करे कि एक तरफ़ दुनिया बेहद रंगीन और रोशनी से भरी हुई है , पर दूसरी तरफ़ एक ऐसा गहरा अंधेरा है जिसे देख कर रुह भी काँप जाती है...। 
                       कानपुर के हैलट और उर्सला अस्पताल का नर्क अपनी आँखों से देख कर मैं सिहर गई थी और उस सिहरन से बचने के लिए ही समाज-सेवा का भूत अपने सिर से उतार लिया था , पर उस वक़्त , जब मेरी अपनी बहन को मेरी सेवा की जरूरत थी , उससे कैसे दामन छुड़ाती...? नर्क इस कदर मेरे पीछे पड़ गया था कि उसने भागने का कोई रास्ता ही नहीं छोड़ा था...।
                        


( जारी है )
          

1 comment:

  1. एम्स दिल्ली के भी हाल ऐसा ही है, बल्कि बदतर.
    और, मैं तो प्राइवेट वेल्लोर हस्पताल भी हो आया हूँ. वहाँ की स्थिति भी कोई अच्छी नहीं है. अपना संक्षिप्त विवरण यहाँ लिखा है-
    http://raviratlami.blogspot.com/2007/09/blog-post_05.html
    तथा -
    http://raviratlami.blogspot.com/2007/09/2.html

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